वि꣣भो꣡ष्ट꣢ इन्द्र꣣ रा꣡ध꣢सो वि꣣भ्वी꣢ रा꣣तिः꣡ श꣢तक्रतो । अ꣡था꣢ नो विश्वचर्षणे द्यु꣣म्न꣡ꣳ सु꣢दत्र मꣳहय ॥३६६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)विभोष्ट इन्द्र राधसो विभ्वी रातिः शतक्रतो । अथा नो विश्वचर्षणे द्युम्नꣳ सुदत्र मꣳहय ॥३६६॥
वि꣣भोः꣢ । वि꣣ । भोः꣢ । ते꣣ । इन्द्र । रा꣡ध꣢꣯सः । वि꣣भ्वी꣢ । वि । भ्वी꣢ । रा꣣तिः꣢ । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । विश्वचर्षणे । विश्व । चर्षणे । द्युम्न꣢म् । सु꣣दत्र । सु । दत्र । मँहय ॥३६६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में इन्द्र से याचना की गयी है।
हे (शतक्रतो) बहुत ज्ञानी तथा बहुत-से कर्मों को करनेवाले (इन्द्र) विश्वम्भर परमात्मन् ! (विभोः ते) व्यापक आपके (राधसः) शम, दम, न्याय, सत्य, अहिंसा आदि आध्यात्मिक और चाँदी, सोना, हीरा, मोती, मणि, माणिक्य, विद्या, आरोग्य, यश, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक धन की (रातिः) देन (विभ्वी) बड़ी व्यापक है। (अथ) इस कारण, हे (विश्वचर्षणे) विश्वद्रष्टा ! हे (सुदत्र) शुभ दानी जगदीश्वर ! आप (नः) हमारे लिए (द्युम्नम्) आत्मिक तेज, भौतिक धन और उससे उत्पन्न होनेवाले यश को (मंहय) प्रदान कीजिए ॥ इस मन्त्र की राजा तथा आचार्य के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए। व्यापक धनवाले राजा का धनदान व्यापक होता है, और व्यापक विद्यावाले आचार्य का विद्यादान व्यापक होता है। राजा गुप्तचर रूपी आँखों से सकलद्रष्टा होता है, और आचार्य अपने ज्ञान के बल से सकलद्रष्टा होता है ॥७॥ इस मन्त्र में ‘विभु परमात्मा की देन भी विभु है’ इसमें समालङ्कार व्यङ्ग्य है, क्योंकि समालङ्कार वहाँ होता है, जहाँ अनुरूप वस्तुओं के मिलन की प्रशंसा होती है ॥७॥
जो जगदीश्वर, राजा और आचार्य धन, विद्या, तेज, यश आदि की प्रचुर वर्षा करते हैं, वे हमारे लिए भी इनकी धारा को प्रवाहित करें ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रः प्रार्थ्यते।
हे (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ, बहुकर्मन् (इन्द्र) विश्वम्भर परमात्मन् ! (विभोः) व्यापकस्य (ते) तव (राधसः) शमदमन्यायसत्याहिंसादेः आध्यात्मिकस्य, भौतिकस्य रजतस्वर्णहीरकमुक्तामणिमाणिक्यविद्यारोग्ययशश्चक्रवर्ति-राज्यादेश्च (रातिः) दत्तिः (विभ्वी) व्यापिनी वर्तते। (अथ) अतः कारणात् हे (विश्वचर्षणे) विश्वद्रष्टः ! विश्वचर्षणिरिति पश्यतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३।११। हे (सुदत्र) शोभनदान जगदीश्वर ! त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (द्युम्नम्) आध्यात्मिकं तेजो भौतिकं धनं, तज्जन्यं यशश्च। द्युम्नमिति धननाम। निघं० २।१०। द्युम्नं द्योततेः यशो वाऽन्नं वा। निरु० ५।५। (मंहय) प्रयच्छ। मंहते दानकर्मा। निघं० ३।२०। तत्रैव मंहयतिरपि पठितव्यः ॥ मन्त्रोऽयं नृपतिपक्षे आचार्यपक्षे चापि योजनीयः। विभुधनस्य नृपस्य धनदानं विभु, विभुविद्यस्याचार्यस्य च विद्यादानं विभु भवति। नृपश्चारचक्षुभिर्विश्वद्रष्टा, आचार्यश्च ज्ञानबलेन विश्वद्रष्टा ॥७॥२ अत्र ‘विभोः राधसः रातिरपि विभ्वी’ इति समालङ्कारो ध्वन्यते, ‘समं स्यादानुरूप्येण श्लाघा योग्यस्य वस्तुनः’ (सा० द० १०।७१) इति तल्लक्षणात् ॥७॥
यो जगदीश्वरो नृपतिराचार्यश्च धनविद्यातेजःकीर्त्यादेः प्रचुरां वृष्टिं करोति सोऽस्मभ्यमपि तद्धारां प्रवाहयेत् ॥७॥