स꣢ घा꣣ य꣡स्ते꣢ दि꣣वो꣡ नरो꣢꣯ धि꣣या꣡ मर्त꣢꣯स्य꣣ श꣡म꣢तः । ऊ꣣ती꣡ स बृ꣢꣯ह꣣तो꣢ दि꣣वो꣢ द्वि꣣षो꣢꣫ अꣳहो꣣ न꣡ त꣢रति ॥३६५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स घा यस्ते दिवो नरो धिया मर्तस्य शमतः । ऊती स बृहतो दिवो द्विषो अꣳहो न तरति ॥३६५॥
सः꣢ । घ꣣ । यः꣢ । ते꣣ । दिवः꣢ । न꣡रः꣢꣯ । धि꣣या꣢ । म꣡र्त꣢꣯स्य । श꣡म꣢꣯तः । ऊ꣣ती꣢ । सः । बृ꣣हतः꣢ । दि꣣वः꣢ । द्वि꣣षः꣢ । अँ꣡हः꣢꣯ । न । त꣣रति ॥३६५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह विषय है कि परमेश्वर के ध्यान से क्या फल होता है।
हे परम धीमान् इन्द्र परमेश्वर ! (यः नरः) जो मनुष्य (मर्तस्य) मारनेवाले, (शमतः) लौकिक शान्ति को तथा मोक्षरूप परमशान्ति को देनेवाले, (दिवः) कमनीय (ते) आपके (धिया) ध्यान में मग्न होता है, (सः) वह, (सः घ) निश्चय से वही, (बृहतः) महान्, (दिवः) ज्योतिर्मय आपकी (ऊती) रक्षा से (अंहः न) पाप के समान (द्विषः) द्वेषवृत्तियों को भी (तरति) पार कर लेता है ॥६॥
जैसे मनुष्य मरणधर्मा होने से ‘मर्त्त’ कहलाता है, वैसे ही जगदीश्वर मारनेवाला होने से ‘मर्त्त’ है। वेद में कहा भी है—‘जो मारता है, जो जिलाता है (अथ० १३।३।३)’। मारनेवाला होने से उसके नाम मर्त्त, मृत्यु, शर्व और यम हैं, जन्म देने और प्राण प्रदान करने के कारण वह भव, जनिता, प्राण आदि कहाता है। उसके ध्यान से बल पाकर मनुष्य सब विघ्नों और समस्त शत्रुओं को पार कर सकता है ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरस्य ध्यानेन किं फलं भवतीत्याह।
हे (इन्द्र) परमधीमन् जगदीश्वर ! (यः नरः) यो मनुष्यः (मर्त्तस्य) मारयितुः, (शमतः) शमयतः, लौकिकीं शान्तिं मोक्षरूपां परां शान्तिं च प्रयच्छतः, (दिवः) कमनीयस्य। दीव्यतिरत्र कान्तिकर्मा। (ते) तव (धिया) ध्यानेन सचते, (सः) असौ, (सः घ) निश्चयेन स एव, (बृहतः) महतः (दिवः) ज्योतिर्मयस्य तव। दीव्यतिरत्र द्युतिकर्मा। (ऊती) रक्षया (अंहः न) पापाचारम् इव (द्विषः) द्वेषवृत्तीः अपि (तरति) अतिक्रामति। यथा अंहः तरति तथा द्विषोऽपि तरति। अंहश्च द्विषश्च तरतीत्यर्थः। एतेनैव विधिना नकारः समुच्चयार्थोऽपि भवति ॥६॥२
यथा मनुष्यो मरणात् मर्त्तः, तथा जगदीश्वरो मारणान्मर्त्त उच्यते। उक्तं च ‘यो मा॒रय॑ति प्रा॒णय॑ति’ (अथ० १३।३।३) इति। स हि मारणान्मर्त्तो मृत्युः शर्वो यमो वा, जननात् प्राणप्रदानाच्च भवः जनिता प्राणश्च उच्यते। तस्य ध्यानेन बलं प्राप्य जनः सर्वान् विघ्नान् समस्तान् शत्रूंश्च समुत्तर्तुं प्रभवति ॥६॥