आ꣢ त्वा꣣ र꣢थं꣣ य꣢थो꣣त꣡ये꣢ सु꣣म्ना꣡य꣢ वर्तयामसि । तु꣣विकूर्मि꣡मृ꣢ती꣣ष꣢ह꣣मि꣡न्द्र꣢ꣳ शविष्ठ꣣ स꣡त्प꣢तिम् ॥३५४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ त्वा रथं यथोतये सुम्नाय वर्तयामसि । तुविकूर्मिमृतीषहमिन्द्रꣳ शविष्ठ सत्पतिम् ॥३५४॥
आ꣢ । त्वा꣣ । र꣡थ꣢꣯म् । य꣡था꣢꣯ । ऊ꣣त꣡ये꣢ । सु꣣म्ना꣡य꣢ । व꣣र्तयामसि । तुविकूर्मि꣢म् । तु꣣वि । कूर्मि꣢म् । ऋ꣣तीष꣡ह꣢म् । ऋ꣣ती । स꣡ह꣢꣯म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । श꣣विष्ठ । स꣡त्प꣢꣯तिम् । सत् । प꣣तिम् ॥३५४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और राजा को सम्बोधित किया गया है।
हे (शविष्ठ) बलिष्ठ ! (ऊतये) सांसारिक दुःख, विघ्न आदियों से रक्षा के लिए, और (सुम्नाय) ऐहिक एवं पारलौकिक सुख के लिए, हम (तुविकूर्मिम्) बहुत-से कर्मों के कर्ता, (ऋतीषहम्) शत्रु-सेनाओं के पराजयकर्ता, (सत्पतिम्) सदाचारियों के पालनकर्ता (त्वा) तुझ (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् परमात्मा वा राजा को (आवर्तयामसि) अपनी ओर प्रवृत्त करते हैं, (यथा) जैसे (ऊतये) शत्रुओं से रक्षा के लिए और (सुम्नाय) यात्रा-सुख के लिए (तूविकूर्मिम्) व्यापार आदि द्वारा बहुत-से धनों को उत्पन्न करने में साधनभूत, (ऋतीषहम्) वायु, वर्षा आदि के आघात को सहनेवाले, (सत्पतिम्) बैठे हुए श्रेष्ठ यात्रियों के पालन के साधनभूत (रथम्) भूयान, जलयान, विमान आदि को लोग प्रवृत्त करते हैं ॥३॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥३॥
जैसे हवा, धूप, वर्षा आदि से बचाव के लिए और यात्रासुख के लिए रथ प्राप्तव्य होता है, वैसे ही रोग आदि से होनेवाले दुःखों से त्राणार्थ और शिक्षा, चिकित्सा, न्याय, वर्णाश्रमधर्म की प्रतिष्ठा, शान्तिस्थापना आदि द्वारा योगक्षेम के सुखप्रदानार्थ राजा को तथा त्रिविध तापों से त्राणार्थ और मोक्ष-सुख आदि के प्रदानार्थ परमात्मा को प्राप्त करना चाहिए ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा राजा च सम्बोध्यते।
हे (शविष्ठ) बलिष्ठ ! (ऊतये) दुःखविघ्नादिभ्यो रक्षणाय (सुम्नाय) ऐहिकपारलौकिकसुखाय च वयम् (तुविकूर्मिम्२) बहूनां कर्मणां कर्तारम्। तुवीति बहुनाम निघं० ३।१। कूर्मिः करोतेर्बाहुलकादौणादिको मिः प्रत्ययः। (ऋतीषहम्३) ऋतीः शत्रुसेनाः सहते अभिभवतीति तम्, (सत्पतिम्) सदाचारिणां पालकम् (त्वा) त्वाम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं परमात्मानं राजानं वा (आवर्तयामसि) अनुकूलं प्रवर्तयामः, (यथा) येन प्रकारेण (ऊतये) शत्रुभ्यो रक्षणाय (सुम्नाय) यात्रासुखाय च (तुविकूर्मिम्) बहूनां धनानां व्यापारादिद्वारा उपार्जने साधनभूतम्, (ऋतीषहम्) वायुवृष्ट्याद्याघातसहम्, (सत्पतिम्) सताम् उपविष्टानां यात्रिणां पालनसाधनीभूतम् (रथम्) भूयान-जलयान-विमानादिकम्, जनाः आवर्तयन्ति प्रवृत्तं कुर्वन्ति ॥३॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥३॥
यथा वातातपवर्षादिभ्यस्त्राणाय यात्रासुखाय च रथः प्राप्तव्यो भवति, तथैव रोगादिजन्येभ्यो दुःखेभ्यस्त्राणाय शिक्षाचिकित्सान्यायवर्णाश्रमधर्मप्रतिष्ठा- शान्तिस्थापनादिभिर्योगक्षेमसुखप्रदानाय च राजा, त्रिविधतापेभ्यस्त्राणाय मोक्षसुखप्रदानाय च परमात्मा प्राप्तव्यः ॥३॥