ए꣢तो꣣ न्वि꣢न्द्र꣣ꣳ स्त꣡वा꣢म शु꣣द्ध꣢ꣳ शु꣣द्धे꣢न꣣ सा꣡म्ना꣢ । शु꣣द्धै꣢रु꣣क्थै꣡र्वा꣢वृ꣣ध्वा꣡ꣳस꣢ꣳ शु꣣द्धै꣢रा꣣शी꣡र्वा꣢न्ममत्तु ॥३५०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एतो न्विन्द्रꣳ स्तवाम शुद्धꣳ शुद्धेन साम्ना । शुद्धैरुक्थैर्वावृध्वाꣳसꣳ शुद्धैराशीर्वान्ममत्तु ॥३५०॥
आ꣢ । इ꣣त । उ । नु꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स्त꣡वा꣢꣯म । शु꣣द्ध꣢म् । शु꣣द्धे꣡न꣢ । सा꣡म्ना꣢꣯ । शु꣣द्धैः꣢ । उ꣣क्थैः꣢ । वा꣣वृध्वाँ꣡स꣢म् । शु꣣द्धैः꣢ । आ꣣शी꣡र्वा꣢न् । आ꣣ । शी꣡र्वा꣢꣯न् । म꣣मत्तु ॥३५०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः जगदीश्वर की स्तुति का विषय है।
हे साथियो ! (एत उ) आओ, (नु) शीघ्र ही, तुम और हम मिलकर (शुद्धम् इन्द्रम्) पवित्र जगदीश्वर की (शुद्धेन साम्ना) पवित्र सामगान से (स्तवाम) स्तुति करें। (शुद्धैः) पवित्र (उक्थैः) स्तोत्रों से (वावृध्वांसम्) वृद्धि को प्राप्त हममें से प्रत्येक जन को (आशीर्वान्) आशीषों का अधिपति जगदीश्वर (शुद्धैः) पवित्र आशीर्वादों से (ममत्तु) आनन्दित करे ॥९॥ इस मन्त्र में पूर्वार्ध में ‘शुद्धं, शुद्धे, ‘शुद्धैरु, शुद्धैरा’ में छेकानुप्रास, और उत्तरार्ध में ‘शुद्धै, शुद्धै’ इन निरर्थकों की आवृत्ति में यमक अलङ्कार है। सम्पूर्ण मन्त्र में संयुक्ताक्षरों का वैशिष्ट्य है ॥९॥
स्तोताओं के द्वारा शुद्ध सामगानों द्वारा प्रेम से स्तुति किया हुआ जगदीश्वर शुद्ध आशीर्वादों से उन्हें बढ़ाता और आनन्दित करता है ॥९॥ इस मन्त्र पर सायणाचार्य ने यह इतिहास प्रदर्शित किया है—पहले कभी इन्द्र वृत्र आदि असुरों का वध करके ब्रह्महत्या आदि के दोष से स्वयं को अशुद्ध मानने लगा। उस दोष के परिहार के लिए इन्द्र ने ऋषियों से कहा कि तुम मुझ अपवित्र को अपने साम से शुद्ध कर दो। तब उन्होंने शोधक साम से और शस्त्रों से उसे परिशुद्ध किया। बाद में शुद्ध हुए उस इन्द्र के लिए याग आदि कर्म में सोम आदि हवियाँ भी दीं।’’ पर इस इतिहास में देवता भी, वध्य को भी मार कर, पाप से लिप्त होते हैं, यह कल्पना की गयी है, जो बड़ी असंगत है ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनर्जगदीश्वरस्य स्तुतिविषयमाह।
हे सखायः ! (एत उ) आगच्छत खलु, (नु) क्षिप्रम्, यूयं वयं च संभूय (शुद्धम् इन्द्रम्) पवित्रं जगदीश्वरम् (शुद्धेन साम्ना) पवित्रेण सामगानेन (स्तवाम) स्तुयाम। ष्टुञ् स्तुतौ धातोर्लेटि रूपम्। (शुद्धैः) पवित्रैः (उक्थैः) स्तोत्रैः (वावृध्वांसम्) वृद्धम्, अस्मासु प्रत्येकं जनम्। वृधु वृद्धौ धातोर्लिटः क्वसौ रूपम्। (आशीर्वान्) आशिषामधिपतिः जगदीश्वरः। आशीः आशास्तेः। निरु० ६।८। (शुद्धैः) पवित्रैराशीर्वादैः (ममत्तु) मादयतु आनन्दयतु, मद तृप्तियोगे धातोः ‘बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७६’ इति शपः श्लौ रूपम् ॥९॥ अत्र पूर्वार्द्धे ‘शुद्धं, शुद्धे’ ‘शुद्धैरु, शुद्धैरा’ इति छेकानुप्रासः। उत्तरार्द्धे ‘शुद्धै, शुद्धै’ इति निरर्थकयोरावृत्तौ यमकम्। सम्पूर्णे मन्त्रे संयुक्ताक्षरवैशिष्ट्यमपि ॥९॥
स्तोतृभिः शुद्धैः सामभिः प्रेम्णा स्तुतो जगदीश्वरः शुद्धैराशीर्वादैस्तान् वर्द्धयत्यानन्दयति च ॥९॥ अत्र सायणाचार्येण इतिहासोऽयं प्रदर्शितः—“पुरा किलेन्द्रो वृत्रादिकानसुरान् हत्वा ब्रह्महत्यादिदोषेणात्मानमपरिशुद्धमित्यमन्यत। तद्दोषपरिहाराय इन्द्र ऋषीनवोचत्, यूयम् अपूतं मां युष्मदीयेन साम्ना शुद्धं कुरुतेति। ततस्ते च शुद्ध्युत्पादकेन साम्ना शस्त्रैश्च परिशुद्धमकार्षुः। पश्चात् पूतायेन्द्राय यागादिकर्मणि सोमादीनि हवींषि च प्रादुरिति।” तत्तु हन्त, देवा अपि, वध्यमपि च हत्वा पाप्मना लिप्यन्त इति महदसमञ्जसं किल ॥