आ꣢ त्वा꣣ गि꣡रो꣢ र꣣थी꣢रि꣣वा꣡स्थुः꣢ सु꣣ते꣡षु꣢ गिर्वणः । अ꣣भि꣢ त्वा꣣ स꣡म꣢नूषत꣣ गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ ॥३४९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ त्वा गिरो रथीरिवास्थुः सुतेषु गिर्वणः । अभि त्वा समनूषत गावो वत्सं न धेनवः ॥३४९॥
आ꣢ । त्वा꣣ । गि꣡रः꣢꣯ । र꣣थीः꣢ । इव । अ꣡स्थुः꣢꣯ । सु꣣ते꣡षु꣢ । गि꣣र्वणः । गिः । वनः । अभि꣢ । त्वा꣣ । स꣢म् । अ꣣नूषत । गा꣡वः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । न । धे꣣न꣡वः꣢ ॥३४९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जगदीश्वर की स्तुति का विषय है।
हे (गिर्वणः) वाणियों से सेवनीय इन्द्र परमात्मन् ! (सुतेषु) ज्ञान-कर्म-श्रद्धा रूप सोमरसों के अभिषुत हो जाने पर (गिरः) मेरी वाणियाँ (त्वा) तेरे पास (आ अस्थुः) आकर स्थित हो गयी हैं, रथीः (इव) जैसे रथ-स्वामी रथ पर स्थित होता है। वे मेरी वाणियाँ (त्वा अभि) तेरे अभिमुख होकर (समनूषत) भली-भाँति स्तुति कर रही हैं, (धेनवः गावः) दूध पिलानेवाली प्रीतियुक्त गौएँ (वत्सं न) जैसे बछड़े के अभिमुख होकर रंभाती हैं ॥८॥ इस मन्त्र में दो उपमालङ्कारों की संसृष्टि और अनुप्रास अलङ्कार है ॥८॥
रथी जन जैसे रथ का आश्रय लेते हैं, वैसे स्तोताओं की वाणियाँ परमात्मा का आश्रय लें, और उसके सम्मुख हो ऐसे प्रेम से उसकी स्तुति करें जैसे गौएँ बछड़े को सम्मुख पाकर रंभाती हैं ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जगदीश्वरस्य स्तुतिविषयमाह।
हे (गिर्वणः) गीर्भिः वननीय इन्द्र परमात्मन् ! (सुतेषु) ज्ञानकर्मश्रद्धारूपेषु सोमरसेषु अभिषुतेषु सत्सु (गिरः) मदीयाः वाचः (त्वा) त्वाम् (आ अस्थुः) आश्रितवत्यः सन्ति, (रथीः इव) यथा रथवान् रथमाश्रयते तद्वत्। रथ शब्दात् ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। अ० ५।२।१२२’ इति वार्तिकेन मतुबर्थे ई प्रत्ययः। ताश्च मदीया गिरः (त्वा अभि) त्वामभिमुखीभूय (समनूषत) समनुविषुः, सम्यक् शब्दायन्ते, स्तुवन्तीत्यर्थः। संपूर्वात् णू स्तवने धातोर्लडर्थे लुङि ‘संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः’ इति गुणादेशाभावे व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (धेनवः) पयःपायिन्यः प्रीतियुक्ता वा। धेनुः धयतेर्वा धिनोतेर्वेति निरुक्तम्, ११।४३। (गावः) पयस्विन्यः (वत्सं न) वत्समभिमुखीभूय यथा शब्दायन्ते, हम्भारवं कुर्वन्ति तद्वत् ॥८॥ अत्र द्वयोरुपमयोः संसृष्टिरनुप्रासश्च ॥८॥
रथिनो रथमिव स्तोतॄणां गिरः परमात्मानमुपस्थाय धेनवो वत्समिव तमभिमुखीभूय तं प्रेम्णा स्तुवन्तु ॥८॥