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च꣣क्रं꣡ यद꣢꣯स्या꣣प्स्वा꣡ निष꣢꣯त्तमु꣣तो꣡ तद꣢꣯स्मै꣣ म꣡ध्विच्च꣢꣯च्छद्यात् । पृ꣣थिव्या꣡मति꣢꣯षितं꣣ य꣢꣫दूधः꣣ प꣢यो꣣ गो꣡ष्वद꣢꣯धा꣣ ओ꣡ष꣢धीषु ॥३३१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

चक्रं यदस्याप्स्वा निषत्तमुतो तदस्मै मध्विच्चच्छद्यात् । पृथिव्यामतिषितं यदूधः पयो गोष्वदधा ओषधीषु ॥३३१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

च꣣क्र꣢म् । यत् । अ꣣स्या । अप्सु꣢ । आ । नि꣡ष꣢꣯त्तम् । नि । स꣣त्तम्। उत । उ । तत् । अ꣣स्मै । म꣡धु꣢꣯ । इत् । च꣣च्छद्यात् । पृथिव्या꣢म् । अ꣡ति꣢꣯षितम् । अ꣡ति꣢꣯ । सि꣣तम् । य꣢त् । ऊधरि꣡ति꣢ । प꣡यः꣢꣯ । गो꣡षु꣢꣯ । अ꣡द꣢꣯धाः । ओ꣡ष꣢꣯धीषु । ओ꣡ष꣢꣯ । धी꣣षु ॥३३१॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 331 | (कौथोम) 4 » 1 » 4 » 9 | (रानायाणीय) 3 » 10 » 9


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में जलों में निहित चक्र का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अप्सु) जलों में (अस्य) इस इन्द्र परमात्मा का अर्थात् उससे रचित (यत्) जो (चक्रम्) ऊपर चढ़ना और नीचे उतरना रूपी चक्र (आ निषत्तम्) स्थित है, (उत उ तत्) वह (अस्मै) इस संसार के लिए (मधु इत्) मधु को ही (चच्छद्यात्) प्रदान करता है। (यत्) जो (ऊधः) अन्तरिक्षरूपी गाय के ऊधस् के समान विद्यमान बादल (पृथिव्याम्) भूमि पर (अतिषितम्) वर्षा की धारों के रूप में छूटता है, उससे हे इन्द्र परमात्मन् ! आप (गोषु) गायों में, और (ओषधीषु) ओषधियों में (पयः) क्रम से दूध और रस को (अदधाः) निहित करते हो ॥ इस जल के चक्र को अन्यत्र वेद में इस रूप में वर्णित किया गया है—यह जल समानरूप से दिनों में कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे आता है। बादल बरसकर भूमि को तृप्त करते हैं, और अग्नियाँ जल को भाप बनाकर आकाश को तृप्त करती हैं’’ ऋ० १।१६४।५१ ॥९॥

भावार्थभाषाः -

पृथिवी के नदी, नद, समुद्र आदियों से पानी भाप बनकर आकाश में जाता है, वहाँ बादल के आकार में परिणत होकर वर्षा द्वारा फिर भूमण्डल पर आ जाता है। वही निर्मल जल गायों में दूध रूप में और वनस्पतियों में रस-रूप में बदल जाता है। परमेश्वर जलों में इस चक्र को पैदा कर सर्वत्र मधु बरसाता है, इसके लिए उसे सबको धन्यवाद देना चाहिए ॥९॥ इस दशति में इन्द्र द्वारा कृष्ण और वृत्र के वध तथा द्यावापृथिवी आदि के जन्म का वर्णन होने से, इन्द्र का आह्वान होने से, और उसके द्वारा जलों में निहित चक्र का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्वदशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ तृतीय अध्याय में दशम खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथाप्सु निहितं चक्रं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अप्सु) उदकेषु (अस्य) इन्द्रस्य परमात्मनः, तत्कर्तृकमित्यर्थः (यत् चक्रम्) आरोहणावरोहणरूपं चक्रम् (आ निषत्तम्) आनिषण्णं विद्यते। नि पूर्वात् षद्लृ धातोर्निष्ठायां ‘नसत्तनिषत्तानुत्त०। अ० ८।२।६१’ इति नत्वाभावो निपात्यते। (उत उ तत्) तत् खलु (अस्मै) एतस्मै लोकाय (मधु इत्) मधु एव, अमृतमेव (चच्छद्यात्) आच्छादयति, प्रददातीत्यर्थः। छद संवरणे चुरादिः, ‘बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७६’ इति शपः श्लुः। लडर्थे लिङ्। तदेव स्पष्टयति। (यत् ऊधः) अन्तरिक्षरूपाया गोः ऊधः इव वर्तमानो मेघः (पृथिव्याम्) भूमौ (अतिषितम्) वृष्टिधारासु विमुक्तं भवति। स्यतिरुपसृष्टो विमोचने। निरु० १।१५।, तेन हे परमात्मन् ! त्वम् (गोषु) धेनुषु, (ओषधीषु) वृक्षवनस्पत्यादिषु च (पयः) क्रमशः दुग्धं रसं च (अदधाः) दधासि ॥ अप्सु निहितं चक्रमेवान्यत्र श्रुतिरेवं वर्णयति—“स॒मा॒नमे॒तदु॑द॒कमुच्चैत्यव॒ चाह॑भिः। भूमिं॑ प॒र्जन्या॒ जिन्व॑न्ति॒ दिवं॑ जिन्वन्त्य॒ग्नयः॑।” इति ऋ० १।१६४।५१ ॥९॥

भावार्थभाषाः -

पृथिव्या नदीनदसमुद्रादिभ्य उदकं वाष्पीभूय गगनं गच्छति, तत्र च मेघाकारेण परिणतं सद् वृष्टिद्वारा पुनर्भूमण्डलमागच्छति। तदेव निर्मलं जलं गोषु दुग्धात्मना वनस्पतिषु च रसात्मना परिणमति। परमेश्वरोऽप्सु चक्रमेतन्निधाय सर्वत्र मधु वर्षतीति तदर्थं तस्मै धन्यवादः सर्वैर्देयः ॥९॥ अत्रेन्द्रद्वारा कृष्णवृत्रासुरयोर्वधस्य द्यावापृथिव्यादिजन्मनश्च वर्णनात्, इन्द्रस्याह्वानात्, तद्द्वाराप्सु निहितस्य चक्रस्य च वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सङ्गतिरस्तीति विजानीत ॥ इति चतुर्थे प्रपाठके प्रथमार्धे चतुर्थी दशतिः ॥ इति तृतीयाध्याये दशमः खण्डः ॥

टिप्पणी: १. ऋ० १०।७३।९।