अ꣡पू꣢र्व्या पुरु꣣त꣡मा꣢न्यस्मै म꣣हे꣢ वी꣣रा꣡य꣢ त꣣व꣡से꣢ तु꣣रा꣡य꣢ । वि꣣रप्शि꣡ने꣢ व꣣ज्रि꣢णे꣣ श꣡न्त꣢मानि꣣ व꣡चा꣢ꣳस्यस्मै꣣ स्थ꣡वि꣢राय तक्षुः ॥३२२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अपूर्व्या पुरुतमान्यस्मै महे वीराय तवसे तुराय । विरप्शिने वज्रिणे शन्तमानि वचाꣳस्यस्मै स्थविराय तक्षुः ॥३२२॥
अ꣡पू꣢꣯र्व्या । अ । पू꣣र्व्या । पुरुत꣡मा꣢नि । अ꣣स्मै । महे꣢ । वी꣣रा꣡य꣢ । त꣣व꣡से꣢ । तु꣣रा꣡य꣢ । वि꣣रप्शि꣡ने । वि꣣ । रप्शि꣡ने꣢ । व꣣ज्रि꣡णे꣣ । श꣡न्त꣢꣯मानि । व꣡चां꣢꣯ऽसि । अ꣣स्मै । स्थ꣡वि꣢꣯राय । स्थ । वि꣣राय । तक्षुः ॥३२२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह विषय है कि कैसे परमात्मा के लिए कौन लोग कैसे स्तुतिवचनों को कहें।
(अस्मै) इस (महे) महान् (वीराय) वीर अथवा कामादि शत्रुओं के प्रकम्पक, (तवसे) बलवान् (तुराय) शीघ्र कार्यों को करनेवाले इन्द्र परमेश्वर के लिए और (अस्मै) इस (विरप्शिने) विशेष रूप से वेदों के प्रवक्ता तथा विशेषरूप से स्तुतियोग्य, (वज्रिणे) वज्रधारी के समान दुष्टों को दण्ड देनेवाले, (स्थविराय) प्रवृद्धतम चिरन्तन पुराण पुरुष इन्द्र परमेश्वर के लिए, स्तोता जन (अपूर्व्या) अपूर्व (पुरुतमानि) बहुत सारे (शन्तमानि) अतिशय शान्तिदायक (वचांसि) स्तोत्रों को (तक्षुः) रचते या प्रयुक्त करते हैं ॥१०॥ इस मन्त्र में विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर अलङ्कार है। ‘तमान्-तमानि’, ‘वीराय-विराय’ आदि में छेकानुप्रास और ‘राय’ की तीन बार आवृत्ति में तथा ‘वीर-विर-विरा’ में वृत्त्यनुप्रास है ॥१०॥
पुराण पुरुष परमेश्वर सबसे अधिक महान् सबसे अधिक वीर, सबसे अधिक बली, सबसे अधिक शीघ्रकारी, सबसे अधिक स्तुतियोग्य, सबसे अधिक दुर्जनों का दण्डयिता, सबसे अधिक वयोवृद्ध, सबसे अधिक ज्ञानवृद्ध और सबसे अधिक प्राचीन है। वैदिक, स्वरचित और अन्य महाकवियों द्वारा रचित स्तोत्रों से उसकी पूजा सबको करनी चाहिए ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र को प्रबोधन देने, उसके गुण वर्णन करने, उसके द्वारा सृष्ट्युत्पत्ति आदि वर्णित करने, उसकी स्तुति करने तथा इन्द्र नाम से सूर्य, राजा, आचार्य आदि के कर्मों का वर्णन करने के कारण इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ तृतीय अध्याय में नवम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ कीदृशाय परमात्मने के कीदृशानि स्तुतिवचांसि व्याहरेयुरित्याह।
(अस्मै) एतस्मै (महे) महते (वीराय) विक्रान्ताय कामादिशत्रुप्रकम्पकाय वा। वीर विक्रान्तौ, यद्वा वि-पूर्वः ईर गतौ कम्पने च। ‘वीरो वीरयत्यमित्रान्, वेतेर्वा स्याद् गतिकर्मणो, वीरयतेर्वा’ इति निरुक्तम् १।७। (तवसे२) बलवते। तवस् इति बलनाम। निघं० २।९। (तुराय३) क्षिप्रकारिणे इन्द्राय परमेश्वराय, किञ्च (अस्मै४) एतस्मै (विरप्शिने५) विशेषेण स्तुत्याय, विशेषेण वेदानां प्रवक्त्रे वा। वि-पूर्वाद् रप व्यक्तायां वाचि इति धातोरिदं रूपम्। (वज्रिणे) वज्रधरायेव दुराचारिणां दण्डयित्रे, (स्थविराय) प्रवृद्धाय चिरन्तनाय पुराणपुरुषाय इन्द्राय परमेश्वराय, स्तोतारः (अपूर्व्या) अपूर्वाणि। अपूर्वशब्दात्, स्वार्थे यत्, ततो द्वितीयाबहुवचने ‘शेश्छन्दसि बहुलम्। अ० ६।१।७०’ इति शेर्लुक्। (पुरुतमानि) अतिशयेन बहूनि, (शन्तमानि) अतिशयेन शान्तिकराणि (वचांसि) स्तोत्राणि (तक्षुः) कुर्वन्ति, रचयन्ति, प्रयुञ्जते वा। तक्षतिः करोतिकर्मा। निरु० ४।१९। लडर्थे लिट्, ततक्षुः इति प्राप्ते द्वित्वाभावश्छान्दसः ॥१०॥ अत्र विशेषणानां साभिप्रायत्वात् परिकरालङ्कारः। ‘तमान्-तमानि’ ‘वीराय-विराय’, इत्यादौ छेकानुप्रासः। ‘राय’ इत्यस्य त्रिश आवृत्तौ, ‘वीरा-विर-विरा’ इत्यत्र च वृत्त्यनुप्रासः ॥१०॥
पुराणपुरुषः परमेश्वरो महत्तमो वीरतमो बलवत्तमः क्षिप्रतमः स्तुत्यतमो दुर्जनानां दण्डयितृतमो वयोवृद्धतमो ज्ञानवृद्धतमश्चिरन्तनतमश्चास्ति। बहुभिर्वैदिकैः स्वरचितैरितरमहाकविरचितैश्च स्तोत्रैस्तस्य सपर्या सर्वैर्विधेया ॥१०॥६ अत्रेन्द्रस्य प्रबोधनात्, तद्गुणकर्मवर्णनात्, तद्द्वारा सृष्ट्युत्पत्त्यादिवर्णनात्, तस्य स्तुतिवर्णनाद्, इन्द्रनाम्ना सूर्यनृपत्याचार्यादीनां चापि कर्मवर्णनाद् एतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति ज्ञेयम् ॥ इति चतुर्थे प्रपाठके प्रथमार्द्धे तृतीया दशतिः ॥ इति तृतीयाध्याये नवमः खण्डः ॥