प्र꣡ यो रि꣢꣯रि꣣क्ष꣡ ओज꣢꣯सा दि꣣वः꣡ सदो꣢꣯भ्य꣣स्प꣡रि꣢ । न꣡ त्वा꣢ विव्याच꣣ र꣡ज꣢ इन्द्र꣣ पा꣡र्थि꣢व꣣म꣢ति꣣ वि꣡श्वं꣢ ववक्षिथ ॥३१२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र यो रिरिक्ष ओजसा दिवः सदोभ्यस्परि । न त्वा विव्याच रज इन्द्र पार्थिवमति विश्वं ववक्षिथ ॥३१२॥
प्र꣢ । यः । रि꣣रिक्षे꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा । दि꣣वः꣢ । स꣡दो꣢꣯भ्यः । प꣡रि꣢꣯ । न । त्वा꣣ । विव्याच । र꣡जः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । पा꣡र्थिव꣢꣯म् । अ꣡ति꣢ । वि꣡श्व꣢꣯म् । व꣣वक्षिथ ॥३१२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में इन्द्र की महिमा का वर्णन है।
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! (यः) जो आप (ओजसा) बल और प्रताप से (दिवः) द्यौ लोक के (सदोभ्यः) सदनों—सूर्य-तारामण्डल आदियों से (परि) ऊपर होकर (प्र रिरिक्षे) महिमा में उनसे बढ़े हुए हो, (त्वा) ऐसे आपको (पार्थिवं रजः) पार्थिव लोक भी (न विव्याच) नहीं छल सकता है, अर्थात् महिमा में पराजित नहीं कर सकता है। सचमुच आप (विश्वम् अति) सारे विश्व को अतिक्रमण करके (ववक्षिथ) महान् हो ॥१०॥
परमात्मा का बल, महत्त्व, प्रताप और प्रभाव द्यावापृथिवी आदि सारे ब्रह्माण्ड से अधिक है ॥१०॥ इस दशति में प्राकृतिक उषा के वर्णन द्वारा आध्यात्मिक उषा के आविर्भाव को सूचित कर, अश्विनौ के नाम से परमात्मा-जीवात्मा, आत्मा-मन और अध्यापक-उपदेशक का स्तवन कर, इन्द्र नाम से जगदीश्वर की स्तुति करके उससे धन, शत्रुविनाश आदि की प्रार्थना कर उसकी महिमा का वर्णन होने से और इन्द्र नाम से राजा, सेनापति आदि के भी कर्तव्यों का बोध कराने से इस दशति के विषय की पूर्वदशति के विषय के साथ संगति जाननी चाहिए ॥ चतुर्थ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ तृतीय अध्याय में अष्टम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रस्य महिमानमाह।
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् परमात्मन् ! (यः) यः त्वम् (ओजसा) बलेन प्रतापेन च (दिवः) द्युलोकस्य (सदोभ्यः) सदनेभ्यः सूर्यतारामण्डलादिभ्यः (परि) उपरि उत्थाय (प्र रिरिक्षे२) प्र रिरिचिषे, महिम्ना तान्यतिशेषे। प्र पूर्वाद् रिचिर् विरेचने, स्वादेर्लडर्थे लिटि मध्यमैकवचने रूपम्, इडभावश्छान्दसः। तादृशम् (त्वा) त्वाम् (पार्थिवं रजः) पार्थिवो लोकोऽपि। लोका रजांसि उच्यन्ते। निरु० ४।१९ (न विव्याच३) न छलयति, न पराजयते, पार्थिवं रजोऽपि त्वामतिशयितुं नालमित्यर्थः। व्यच व्याजीकरणे तुदादिः, लिटि रूपम्। सत्यं त्वम् (विश्वम् अति) समस्तं ब्रह्माण्डम् अतिक्रम्य (ववक्षिथ४) महान् असि। ववक्षिथ इति महन्नामसु पठितम्। निघं० ३।३। वह प्रापणे धातोः सन्नन्तस्य लडर्थे लिटि रूपम्। वोढुमिच्छसीति शब्दार्थः। यो यं वहति स तदपेक्षया महत्तरो भवतीति कृत्वा ‘महानसि’ इत्यर्थः सम्पद्यते ॥१०॥
परमात्मनो बलं महिमा प्रतापः प्रभावश्च द्यावापृथिव्यादिकात् सकलादपि ब्रह्माण्डादतिरिच्यते ॥१०॥ अत्र प्राकृतिक्या उषसो वर्णनमुखेनाध्यात्मिक्या उषस आविर्भावं संसूच्य, अश्विनाम्ना परमात्मजीवात्मानौ, आत्ममनसी, अध्यापकोपदेशकौ च संस्तूय, इन्द्रनाम्ना जगदीश्वरं स्तुत्वा धनशत्रुविनाशादिकं च सम्प्रार्थ्य तन्महिमवर्णनाद्, इन्द्रनाम्ना नृपतिसेनापत्यादीनां चापि कर्तव्यबोधनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्धव्यम् ॥ इति चतुर्थे प्रपाठके प्रथमार्द्धे द्वितीया दशतिः। इति तृतीयाध्यायेऽष्टमः खण्डः ॥