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क꣡ ईं꣢ वेद सु꣣ते꣢꣫ सचा꣣ पि꣡ब꣢न्तं꣣ क꣡द्वयो꣢꣯ दधे । अ꣣यं꣡ यः पुरो꣢꣯ विभि꣣न꣡त्त्योज꣢꣯सा मन्दा꣣नः꣢ शि꣣प्र्य꣡न्ध꣢सः ॥२९७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

क ईं वेद सुते सचा पिबन्तं कद्वयो दधे । अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥२९७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कः꣢ । ई꣣म् । वेद । सुते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯न्तम् । कत् । व꣡यः꣢꣯ । द꣣धे । अय꣢म् । यः । पु꣡रः꣢꣯ । वि꣣भिन꣡त्ति꣢ । वि꣣ । भिन꣡त्ति꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा । म꣣न्दानः꣢ । शि꣣प्री꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः ॥२९७॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 297 | (कौथोम) 4 » 1 » 1 » 5 | (रानायाणीय) 3 » 7 » 5


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि स्तुति किया हुआ जगदीश्वर क्या करता है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सुते) उपासना-यज्ञ में (सचा) एक-साथ (पिबन्तम्) यजमान के श्रद्धारस का पान करते हुए (ईम्) इस इन्द्र परमेश्वर को (कः वेद) कौन जानता है? (कत्) कब वह (वयः) उपासक के जीवन को (दधे) सहारा दे देता है, इसे भी कौन जानता है? अर्थात् यदि कोई जानता है तो उपासक ही जानता या अनुभव करता है। कैसे परमेश्वर को? इसका उत्तर देते हैं—(अयम्) यह (यः) जो (शिप्री) प्रशस्त स्वरूपवाला परमेश्वर (अन्धसः) यजमान के श्रद्धारस से (मन्दानः) प्रसन्न होता हुआ (ओजसा) बलपूर्वक (पुरः) उसकी मनोभूमि में दृढ़ता के साथ जमी हुई काम-क्रोधादि असुरों की नगरियों को (विभिनत्ति) तोड़-फोड़ देता है ॥५॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर की उपासना का यही लाभ है कि वह उपासक के मन में सब शत्रुओं को पराजित कर सकनेवाले पुरुषार्थ को उत्पन्न करके उसे समरभूमि में विजयी बना देता है ॥५॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ स्तुतो जगदीश्वरः किं करोतीत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सुते) उपासनायज्ञे (सचा) युगपत् (पिबन्तम्) यजमानस्य श्रद्धारसम् आस्वादयन्तम् (ईम्) एतम् इन्द्रम् परमेश्वरम् (कः वेद) को जानाति। (कत्) कदा, सः (वयः) उपासकस्य जीवनम्, (दधे) दधाति इत्यपि को वेद ? यदि कश्चिज्जानाति उपासक एव जानाति अनुभवति वा, नान्यः कश्चनेत्यर्थः। कीदृशम् इन्द्रम् इत्याह—(अयम्) एषः (यः शिप्री) सुमुखः प्रशस्तस्वरूपः इन्द्रः परमेश्वरः प्रशस्ते शिप्रे हनू नासिके वा यस्य सः, प्रशंसार्थे मत्वर्थे इनिः। शिप्राभ्यां मुखमुपलक्ष्यते। मुखेन च स्वरूपमभिप्रेतम्, निरवयवत्वात् परमेश्वरस्य। (अन्धसः) अन्धसा श्रद्धारूपेण सोमरसेन। तृतीयार्थे षष्ठी। (मन्दानः) मोदमानः सन्। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, शानच्, छान्दसो मुगागमनिषेधः। (ओजसा) बलेन (पुरः) तस्य मनोभूमौ दृढं बद्धाः कामक्रोधाद्यसुराणां नगरीः (विभिनत्ति) विदारयति ॥५॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरस्योपासनाया अयमेव लाभो यत् स उपासकस्य मनसि समस्तशत्रुपराजयसमर्थं पुरुषार्थमुत्पाद्य समराङ्गणे तं विजेतारं करोति ॥५॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।३३।७, साम० १९९६, अथ० २०।५३।१, २०।५७।११ सर्वत्र ऋषिः मेध्यातिथिः।