आ꣡ त्वा꣢३꣱द्य꣡ स꣢ब꣣र्दु꣡घा꣢ꣳ हु꣣वे꣡ गा꣢य꣣त्र꣡वे꣢पसम् । इ꣡न्द्रं꣢ धे꣣नु꣢ꣳ सु꣣दु꣢घा꣣म꣢न्या꣣मि꣡ष꣢मु꣣रु꣡धा꣢रामर꣣ङ्कृ꣡त꣢म् ॥२९५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ त्वा३द्य सबर्दुघाꣳ हुवे गायत्रवेपसम् । इन्द्रं धेनुꣳ सुदुघामन्यामिषमुरुधारामरङ्कृतम् ॥२९५॥
आ꣢ । तु । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । स꣣ब꣡र्दुघाम् । स꣣बः । दु꣡घा꣢꣯म् । हु꣣वे꣢ । गा꣣यत्र꣡वे꣢पसम् । गा꣣यत्र꣢ । वे꣣पसम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । धे꣣नु꣢म् । सु꣣दु꣡घा꣣म् । सु꣣ । दु꣡घा꣢꣯म् । अ꣡न्या꣢꣯म् । इ꣡ष꣢꣯म् । उ꣣रु꣡धा꣢राम् । उ꣣रु꣢ । धा꣣राम् । अरङ्कृ꣡त꣢म् । अ꣣रम् । कृ꣡त꣢꣯म् ॥२९५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में दूध देनेवाली गाय के रूप में इन्द्र की स्तुति की गयी है।
(अद्य) आज (तु) शीघ्र ही (सबर्दुघाम्) ज्ञानरूप दूध को देनेवाली, (गायत्र-वेपसम्) जिसके कर्मों का सर्वत्र गान हो रहा है ऐसी, (सुदुघाम्) भली-भाँति कामनाओं को पूर्ण करनेवाली, (अन्याम्) विलक्षण, (इषम्) चाहने योग्य, (उरुधाराम्) बड़ी-बड़ी धारोंवाली, (अरंकृतम्) अलङ्कृत करनेवाली (इन्द्रं धेनुम्) परमेश्वररूप गाय को (आहुवे) पुकारता हूँ ॥३॥ इस मन्त्र में परमेश्वर में गाय का आरोप होने से रूपक अलङ्कार है ॥३॥
जैसे गाय दूध देती है, वैसे परमेश्वर ज्ञान-रस देता है। गाय और परमेश्वर दोनों के यज्ञ-साधकत्व रूप कर्म का गान किया जाता है। दोनों ही मनोरथों को पूर्ण करनेवाले हैं। गाय अन्य पशुओं से विलक्षण है, परमेश्वर अन्य चेतन-अचेतनों से विलक्षण है। गाय दूध की बड़ी-बड़ी धारों को देती है, परमेश्वर आनन्द की धारें बरसाता है। गाय पुष्टि और आरोग्य देकर मनुष्यों को शोभित करती है, परमेश्वर अध्यात्मबल से शोभित करता है। इस प्रकार दोनों की समता होने से परमेश्वर की गाय के समान सेवा और पूजा करनी योग्य है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रं धेनुरूपेण स्तौति।
(अद्य) अस्मिन् दिने (तु) क्षिप्रम् (सबर्दुघाम्२) ज्ञानरूपस्य पयसो दोग्ध्रीम् (गायत्रवेपसम्३) गीयमानकर्माणम्। गायत्रं गायतेः स्तुतिकर्मणः। निरु० १।८। वेपस् इति कर्मनाम। निघं० २।१। (सुदुघाम्) सुष्ठु कामस्य प्रपूरिकाम्। सु पूर्वाद् दुह प्रपूरणे धातोः ‘दुहः कब् घश्च। अ० ३।२।७०’ इति कप् घादेशश्च। (अन्याम्) सामान्यविलक्षणाम् (इषम्) एषणीयाम्। इषु इच्छायाम् धातोः क्विपि रूपम्। (उरुधाराम्) विस्तीर्णधाराम् (अरंकृतम्) अलंकरोतीति अलंकृत्, रलयोरभेदात् अरंकृत् ताम् (इन्द्रं धेनुम्) परमेश्वररूपां गाम्, अहम् (आहुवे४) आह्वयामि ॥३॥ अत्र परमेश्वरे धेन्वारोपाद् रूपकालङ्कारः ॥३॥
यथा धेनुर्यज्ञियं पयो दोग्धि तथा परमेश्वरो ज्ञानरसं दोग्धि। धेनोः परमेश्वरस्य चोभयोरपि यज्ञसाधकत्वरूपं कर्म गीयते। उभावपि मनोरथप्रपूरकौ। गौरितरपशुविलक्षणा, परमेश्वर इतरचेतनाचेतनविलक्षणः। गौर्दुग्धस्य विस्तीर्णा धाराः प्रयच्छति, परमेश्वर आनन्दधारा वर्षति। गौः पुष्ट्यारोग्यदानेन जनान् शोभयति, परमेश्वरोऽध्यात्मशक्त्या शोभयति। एवमुभयोः साम्यात् परमेश्वरो गौरिव सेवनीयः पूजनीयश्च ॥३॥