य꣣दा꣢ क꣣दा꣡ च꣢ मी꣣ढु꣡षे꣢ स्तो꣣ता꣡ ज꣢रेत꣣ म꣡र्त्यः꣢ । आ꣡दिद्व꣢꣯न्देत꣣ व꣡रु꣢णं वि꣣पा꣢ गि꣣रा꣢ ध꣣र्त्ता꣢रं꣣ वि꣡व्र꣢तानाम् ॥२८८
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यदा कदा च मीढुषे स्तोता जरेत मर्त्यः । आदिद्वन्देत वरुणं विपा गिरा धर्त्तारं विव्रतानाम् ॥२८८
य꣣दा꣢ । क꣣दा꣢ । च꣣ । मीढु꣡षे꣢ । स्तो꣣ता । ज꣣रेत । म꣡र्त्यः꣢꣯ । आत् । इत् । व꣣न्देत । व꣡रु꣢꣯णम् । वि꣣पा꣢ । गि꣣रा꣢ । ध꣣र्त्ता꣡र꣢म् । वि꣡व्र꣢꣯तानाम् । वि । व्र꣣तानाम् ॥२८८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में वरुण देवता है। उसकी उपासना के लिए प्रेरणा की गयी है।
(यदा कदा च) जब कभी (स्तोता) स्तोता (मर्त्यः) मनुष्य (मीढुषे) बादल के समान ऐश्वर्यवर्षक परमैश्वर्यशाली इन्द्र परमात्मा को अनुकूल करने के लिए (जरेत) उसकी अर्चना करे, (आत् इत्) उसके अनन्तर ही वह (विव्रतानाम्) व्रत-रहितों को (धर्तारम्) कर्म-पाशों से जकड़नेवाले, (वरुणम्) कर्मानुसार फल देकर पापों से निवारण करनेवाले वरुण परमात्मा की भी (विपा) मेधायुक्त (गिरा) वाणी से (वन्देत) वन्दना कर लिया करे ॥६॥
इन्द्र और वरुण दोनों ही परमेश्वर के नाम हैं। इन्द्र नाम से उसकी परमैश्वर्यवत्ता तथा ऐश्वर्यवर्षकता सूचित होती है और वरुण नाम से उसका पाशधारी होना तथा कर्म-पाशों से बाँधकर और दण्ड देकर पापनिवारक होना सूचित होता है। परमेश्वर के इन दोनों ही स्वरूपों के चिन्तन करने, स्मरण करने तथा सदा अपने सामने धारण रखने से मनुष्य अपने जीवन में सन्मार्गगामी होकर सफलता प्राप्त कर सकता है। ऐश्वर्य पाकर मनुष्य कुमार्ग में प्रवृत्त न हो जाए, इसके लिए परमेश्वर के वरुण स्वरूप को भी ध्यान में रखना आवश्यक है ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ वरुणो देवता। तमुपासितुं प्रेरयति।
(यदा कदा च) यस्मिन् कस्मिन्नपि काले (स्तोता) स्तुतिकर्ता (मर्त्यः) मनुष्यः (मीढुषे) पर्जन्यवत् ऐश्वर्यवर्षकाय इन्द्राय परमैश्वर्यवते परमात्मने, तमनुकूलयितुमित्यर्थः (जरेत) अर्चनां कुर्यात्। जरते अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। (आत् इत्) तदनन्तरमेव सः (विव्रतानाम्२) विगता व्रतेभ्य इति विव्रतास्तेषाम् व्रतहीनानाम्। तत्पुरुषे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (धर्तारम्) कर्मपाशैः निग्रहीतारम् (वरुणम्) कर्मानुसारं दण्डयित्वा पापेभ्यो निवारकं परमात्मानम् अपि (विपा२) मेधावत्या। विप इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। (गिरा) वाचा (वन्देत) पूजयेत् ॥६॥
इन्द्रो वरुणश्चोभे अपि परमेश्वरस्य नाम्नी स्तः। इन्द्रनाम्ना तस्य परमैश्वर्यवत्त्वमैश्वर्यवर्षकत्वं च सूच्यते, वरुणनाम्ना तस्य पाशित्वं कर्मपाशैर्बद्ध्वा दण्डयित्वा पापनिवारकत्वं च सूच्यते। परमेश्वरस्योभयोरपि स्वरूपयोश्चिन्तनेन, स्मरणेन, सदा स्वसम्मुखं धारणेन च मनुष्यो जीवने सन्मार्गगामी भूत्वा साफल्यमधिगन्तुमर्हति। ऐश्वर्यं प्राप्य जनः कुमार्गे प्रवृत्तो न भवेदित्येतदर्थं परमेश्वरस्य वरुणस्वरूपस्यापि ध्यानमावश्यकम् ॥६॥