इ꣡न्द्रा꣢ग्नी अ꣣पा꣢दि꣣यं꣡ पूर्वागा꣢꣯त्प꣣द्व꣡ती꣢भ्यः । हि꣢त्वा꣡ शिरो꣢꣯ जि꣣ह्व꣢या꣣ रा꣡र꣢प꣣च्च꣡र꣢त्त्रि꣣ꣳश꣢त्प꣣दा꣡ न्य꣢क्रमीत् ॥२८१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्राग्नी अपादियं पूर्वागात्पद्वतीभ्यः । हित्वा शिरो जिह्वया रारपच्चरत्त्रिꣳशत्पदा न्यक्रमीत् ॥२८१॥
इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । अ꣣पा꣢त् । अ꣣ । पा꣢त् । इ꣣य꣢म् । पू꣡र्वा꣢꣯ । आ । अ꣣गात् । पद्व꣡ती꣢भ्यः । हि꣣त्वा꣢ । शि꣡रः꣢꣯ । जि꣣ह्व꣡या꣢ । रा꣡र꣢꣯पत् । च꣡र꣢꣯त् । त्रिँ꣣श꣢त् । प꣣दा꣡नि꣢ । अ꣣क्रमीत् ॥२८१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में इन्द्राग्नी देवता हैं। पहेली द्वारा श्रद्धा, उषा, विद्युत् आदि का वर्णन है।
प्रथम—श्रद्धा के पक्ष में। हे (इन्द्राग्नी) परमात्मन् और जीवात्मन् ! तुम्हारे सान्निध्य से (अपात्) पैरों से रहित भी (इयम्) यह पूर्व मन्त्र में वर्णित श्रद्धा (पद्वतीभ्यः) पैरोंवाली प्रजाओं से (पूर्वा) पूर्व-गामिनी होती हुई (आ अगात्) आ गयी है। (शिरः) सिर को (हित्वा) छोड़कर भी, अर्थात् बिना सिरवाली होती हुई भी यह (जिह्वया) जिह्वा से (रारपत्) पुनः-पुनः बोलती हुई सी, अर्थात् अपना सन्देश सुनाती हुई सी (चरत्) विचर रही है और यह (त्रिंशत् पदानि) शरीरस्थ दस इन्द्रियों, दस प्राणों, पाँच कोशों और आत्मासहित अहङ्कारचतुष्टय इन तीसों स्थानों को (अक्रमीत्) व्याप्त कर रही है ॥ द्वितीय—उषा के पक्ष में। हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मणो और क्षत्रियो ! (अपात्) पैरों से रहित भी (इयम्) यह उषा (पद्वतीभ्यः) सोयी हुई पैरोंवाली प्रजाओं से (पूर्वा) पहले जागकर (आ अगात्) आ गयी है। यह उषा (शिरः) सिर को (हित्वा) छोड़कर भी अर्थात् बिना सिर के भी (जिह्वया) जिह्वा-सदृश अपनी प्रभा से (रारपत्) जागरण का सन्देश पुनः पुनः बोलती हुई सी (चरत्) विचर रही है। (त्रिंशत् पदानि) अहोरात्र के तीसों मूहूर्तों को (अक्रमीत्) पार करके आ गयी है, क्योंकि एक पूरे अहोरात्र के पश्चात् उषा का पुनः प्रादुर्भाव होता है ॥ तृतीय—विद्युत् के पक्ष में। हे (इन्द्राग्नी) राजप्रजाजनो ! देखो, (अपात्) पैरों से रहित भी (इयम्) यह विद्युत् (पद्वतीभ्यः) पैरोंवाली मनुष्य, पशु आदि प्रजाओं से (पूर्वा) तीव्रगामिनी होती हुई (आ अगात्) हमारे उपयोग के लिए हमें प्राप्त हुई है। यह विद्युत् (शिरः हित्वा) सिर के बिना भी (जिह्वया) सन्देशवाहक विद्युत्-तारयन्त्र द्वारा (रारपत्) पुनः-पुनः सन्देश-प्रेषक के सन्देश को बोलती हुई (चरत्) तार में चलती है। यह (त्रिंशत् पदानि) महीने के तीसों दिनों को व्याप्त करके (अक्रमीत्) प्रकाश-प्रदान, सन्देशवहन, यन्त्रचालन आदि कार्यों में पग रखती है अर्थात् इन कार्यों को करती है ॥९॥ इस मन्त्र में ‘पैर-रहित होती हुई भी पैरोंवालियों से पहले पहुँच जाती है’, ‘सिर-रहित होती हुई भी जिह्वा से बोलती है’, यहाँ बिना कारण के कार्योत्पत्ति का वर्णन होने से विभावना अलङ्कार है। श्रद्धा, उषा, विद्युत् आदि किसी का नाम लिये बिना संकेतों से सूचना देने के कारण प्रहेलिकालङ्कार भी है ॥९॥
श्रद्धा के धारण से धर्म में प्रवृत्ति और वैयक्तिक तथा सामाजिक उन्नति होती है। उषा जागरण का सन्देश देती है। विद्युत् के प्रयोग से रात में भी दिन के समान प्रकाश प्राप्त होता है और दूरभाषयन्त्र, आकाशवाणीयन्त्र, ऐक्सरेयन्त्र, भार ऊपर उठाने, अस्त्र छोड़ने आदि के विविध यन्त्र और स्थलयान, जलयान एवं विमान चलाये जाते हैं। इस प्रकार श्रद्धा, उषा और विद्युत् सब जनों के लिए अतिलाभकारी हैं, अतः उनका यथोचित उपयोग सबको करना चाहिए ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्राग्नी देवते। प्रहेलिकया श्रद्धोषर्विद्युदादयो वर्ण्यन्ते।
प्रथमः—श्रद्धापक्षे। इन्द्राग्नी सम्बोध्य पूर्वस्मिन् मन्त्रे प्रोक्ता श्रद्धा वर्ण्यते। ‘सा हि जननीव योगिनं पाति’ इति योगभाष्ये (योग १।२०) वेदव्यासः। अथ मन्त्रार्थः। हे (इन्द्राग्नी) परमात्मजीवात्मानौ ! युवयोः सान्निध्यात्। आमन्त्रितत्वात् षाष्ठेन ‘आमन्त्रितस्य च। अ० ६।१।१९८’ इति सूत्रेणाद्युदात्तत्वम्, न चाष्टमिकः (अ० ८।१।१९) प्रवर्तते पादादित्वात्। (अपात्) पादरहितापि सती (इयम्) एषा पूर्वमन्त्रोक्ता श्रद्धा (पद्वतीभ्यः) पादसहिताभ्यः प्रजाभ्यः (पूर्वा) पूर्वगामिनी सती (आ अगात्) समागतास्ति। (शिरः) मूर्धानम् (हित्वा) त्यक्त्वाऽपि, शिरोरहितापीत्यर्थः, ओहाक् त्यागे, क्त्वाप्रत्यये ‘जहातेश्च क्त्वि। अ० ७।४।४३’ इति धातोर्हिः आदेशः। इयम् (जिह्वया) रसनया (रारपत्) लालपत् यथा स्यात् तथेव, इति लुप्तोपमम्। स्वं सन्देशं वदन्तीवेत्यर्थः। रप व्यक्तायां वाचि इति धातर्यङ्लुगन्तस्य शतरि रूपम्। (चरत्) विचरति। चर गतिभक्षणयोः, लेटि रूपम्। सैषा (त्रिंशत्पदानि२) शरीरवर्तीनि दशेन्द्रियाणि, दशप्राणाः, पञ्च कोशाः, आत्मसहितमहङ्कारचतुष्टयम् इत्येतानि त्रिंशदपि स्थानानि (अक्रमीत्) अभिव्याप्नोति ॥ अथ द्वितीयः—उषःपक्षे। उषा३ वर्ण्यते। हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मणक्षत्रियौ ! ब्रह्मक्षत्रे वा इन्द्राग्नी। कौ० ११।८। (अपात्) पादरहितापि (इयम्) एषा उषाः (पद्वतीभ्यः) पादसहिताभ्यः सुप्ताभ्यः प्रजाभ्यः (पूर्वा) जागरिता सती (आ अगात्) आगतास्ति। एषा (शिरः हित्वा) शिरस्त्यक्त्वा, शिरो विनापि (जिह्वया) जिह्वासदृश्या प्रभया (रारपत्) जागरणस्य सन्देशं भूयो भूयो वदन्तीव (चरत्) विचरति। (त्रिंशत् पदानि) अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तान् (अक्रमीत्) व्यतिक्रम्य समायातास्ति। एकैकमहोरात्रं व्यतियाप्य (पुनरुषस) आविर्भावो भवति, तस्मादिदमुच्यते ॥ अथ तृतीयः—विद्युत्पक्षे। विद्युद् वर्ण्यते। हे (इन्द्राग्नी) राजप्रजाजनौ४! पश्यतम्, (अपात्) पादरहितापि (इयम्) एषा विद्युत् (पद्वतीभ्यः) पादसहिताभ्यः मनुष्यमृगादिप्रजाभ्यः (पूर्वा) तीव्रगामिनी सती (आ अगात्) अस्मदुपयोगाय अस्मान् प्राप्तास्ति। एषा (शिरः हित्वा) शिरो विनापि (जिह्वया) सन्देशवाहकविद्युत्तारयन्त्रकलया (रारपत्) भूयो भूयः सन्देशप्रेषकस्य सन्देशं वदन्ती (चरत्) चलति। सैषा (त्रिंशत् पदानि) मासस्य त्रिंशदपि दिनान्यभिव्याप्य (अक्रमीत्) प्रकाशप्रदानसन्देशवहनयन्त्रचालनादिव्यापारेषु पदं निधत्ते ॥९॥५ ‘अपात् सती पद्वतीभ्यः पूर्वागात्, शिरोरहिता सती जिह्वया रारपत्’ इति विना हेतुं कार्योत्पत्तिवर्णनाद् विभावनालङ्कारः। नामग्राहं विना सङ्केतैः सूचनात् प्रहेलिकालङ्कारोऽपि ॥९॥६
श्रद्धाया धारणेन धर्मे प्रवृत्तिर्वैयक्तिकी सामाजिकी चोन्नतिर्भवति। उषा जागरणसन्देशं प्रयच्छति। विद्युतः प्रयोगेण रात्रावपि दिवसवत् प्रकाशः प्राप्यते, दूरभाष-आकाशवाणी-क्षकिरण-भारोत्तोलक-अस्त्रप्रक्षेपकादिविविध- यन्त्राणि भूजलान्तरिक्षयानानि च संचाल्यन्ते। एवं श्रद्धा, उषाः, विद्युच्च सर्वेभ्यो जनेभ्योऽतिलाभकर्यः सन्तीति तासां यथोचितमुपयोगः सर्वैर्विधेयः ॥९॥