अ꣣ग्नि꣢र्मू꣣र्धा꣢ दि꣣वः꣢ क꣣कु꣡त्पतिः꣢꣯ पृथि꣣व्या꣢ अ꣣य꣢म् । अ꣣पा꣡ꣳ रेता꣢꣯ꣳसि जिन्वति ॥२७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपाꣳ रेताꣳसि जिन्वति ॥२७॥
अ꣣ग्निः꣢ । मू꣣र्धा꣢ । दि꣣वः꣢ । क꣣कु꣢त् । प꣡तिः꣢꣯ । पृ꣣थिव्याः꣢ । अ꣣य꣢म् । अ꣣पां꣢ । रे꣡ताँ꣢꣯सि । जि꣣न्वति ॥२७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब सूर्य के दृष्टान्त से परमात्मा की महिमा का वर्णन करते हैं।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (अग्निः) सबका अग्रनेता परमेश्वर (मूर्द्धा) शरीर में मूर्द्धा के समान जगत् का शिरोमणि है, (दिवः) प्रकाशमान द्युलोक का (ककुत्) सर्वोन्नत स्वामी है, और (पृथिव्याः) पृथिवी का (पतिः) पालक है। (अयम्) यह परमेश्वर (अपाम्) अन्तरिक्ष के (रेतांसि) जलों को (जिन्वति) वर्षा द्वारा भूमि पर पहुँचाता है ॥ द्वितीय—सूर्य के पक्ष में। (अग्निः) प्रकाशक सूर्यरूप अग्नि (मूर्द्धा) त्रिलोकी का सिर-सदृश, (दिवः) द्युलोकरूपी बैल का (ककुत्) कुब्ब-सदृश और (पृथिव्याः) भूमि का (पतिः) पालनकर्त्ता स्वामी है। यह (अपाम्) अन्तरिक्ष के (रेतांसि) जलों को (जिन्वति) भूमि पर प्रेरित करता है, बरसाता है ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर सूर्य के समान है, यह उपमाध्वनि है। मूर्द्धा के समान, ककुत् के समान, इस प्रकार लुप्तोपमा है, अथवा अग्नि में मूर्द्धत्व तथा ककुत्त्व का आरोप होने से रूपकालङ्कार है। अग्नि में ककुत्त्व का आरोप शाब्द तथा द्युलोक में वृषभत्व का आरोप आर्थ है, अतः एकदेशविवर्ती रूपक है ॥७॥
जैसे सूर्य सौरलोक का मूर्धातुल्य, द्युलोक का कुब्ब-तुल्य और भूमि का पालनकर्त्ता है, वैसे ही हमारे द्वारा उपासना किया जाता हुआ यह परमेश्वर सकल ब्रह्माण्ड का शिरोमणि है, उज्ज्वल नाना नक्षत्रों से जटित द्युलोक का अधिपति है और विविध पर्वत, नदी, नद, सागर, सरोवर, लता, वृक्ष, पत्र, पुष्प आदि की शोभा से युक्त भूमण्डल का पालक है। वही सूर्य के समान आकाश में स्थित मेघजलों को भूमि पर बरसाता है। अतः वह सबका धन्यवाद-योग्य है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सूर्यदृष्टान्तेन परमात्मनो महिमानं वर्णयन्नाह।
प्रथमः—परमात्मपरः। (अग्निः) सर्वाग्रणीः परमेश्वरः (मूर्द्धा२) शरीरे मूर्द्धवत् जगतः शिरोमणिभूतः, (दिवः) प्रकाशमयस्य द्युलोकस्य (ककुत्३) सर्वोन्नतः स्वामी, किञ्च (पृथिव्याः) भूमेः (पतिः) पालकः वर्त्तते। (अयम्) एष परमेश्वरः (अपाम्४) अन्तरिक्षस्य। आप इत्यन्तरिक्षनाम। निघं० १।३। (रेतांसि) जलानि। रेत इत्युदकनाम। निघं० १।१२। (जिन्वति) प्रेरयति, वृष्ट्या भूलोकं प्रापयतीत्यर्थः। जिन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४ ॥ अथ द्वितीयः—सूर्याग्निपरः। (अग्निः) प्रकाशकः सूर्याग्निः (मूर्द्धा) त्रिलोक्याः शिर इव, (दिवः) द्युलोकरूपस्य वृषभस्य (ककुत्) ककुदिव, (पृथिव्याः) भूमेश्च (पतिः) पालकः स्वामी वर्त्तते। अयम् (अपाम्) अन्तरिक्षस्य (रेतांसि) उदकानि (जिन्वति) भूमौ प्रेरयति ॥७॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। परमेश्वरः सूर्य इवेत्युपमाध्वनिः। मूर्द्धेव ककुदिव इति लुप्तोपमम्। यद्वा अग्नौ मूर्ध्नः ककुदश्चारोपाद् रूपकालङ्कारः। अग्नौ ककुत्त्वारोपः शब्दः, दिवि वृषभत्वारोप आर्थः, तेनैकदेशविवर्त्ति रूपकम् ॥७॥५
यथा सूर्यः सौरजगतो मूर्धेव, द्युलोकस्य ककुदिव, भूमेश्च पालकोऽस्ति तथैवाऽस्माभिरुपास्यमानोऽयं परमेश्वरः सकलब्रह्माण्डस्य शिरोमणिः, प्रोज्ज्वलन्नानानक्षत्रजालजटितस्य द्युलोकस्याधिपतिः, विविधपर्वतनदीनदसागरसरोवरलताविटपिपत्र- पुष्पादिसुषमासमन्वितस्य भूमण्डलस्य पालकश्चाऽस्ति। स एव सूर्यवदन्तरिक्षस्थानि मेघजलानि भूमौ वर्षयति। अतः स सर्वेषां धन्यवादार्हः ॥७॥