य꣢च्छ꣣क्रा꣡सि꣢ परा꣣व꣢ति꣣ य꣡द꣢र्वा꣣व꣡ति꣢ वृत्रहन् । अ꣡त꣢स्त्वा गी꣣र्भि꣢र्द्यु꣣ग꣡दि꣢न्द्र के꣣शि꣡भिः꣢ सु꣣ता꣢वा꣣ꣳ आ꣡ वि꣢वासति ॥२६४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यच्छक्रासि परावति यदर्वावति वृत्रहन् । अतस्त्वा गीर्भिर्द्युगदिन्द्र केशिभिः सुतावाꣳ आ विवासति ॥२६४॥
य꣢त् । श꣣क्र । अ꣡सि꣢꣯ । परा꣣व꣡ति꣣ । यत् । अर्वा꣣व꣡ति꣢ । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । अ꣡तः꣢꣯ । त्वा꣣ । गीर्भिः꣢ । द्यु꣣ग꣢त् । द्यु꣣ । ग꣢त् । इ꣣न्द्र । केशि꣡भिः꣢ । सु꣣ता꣡वा꣢न् । आ । वि꣣वासति ॥२६४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा की महिमा का वर्णन करके उसकी उपासना का विषय कहा गया है।
हे (शक्र) शक्तिशाली परमेश्वर ! (यत्) क्योंकि, तुम (परावति) सुदूरस्थ सूर्य, नक्षत्र, चन्द्र-मण्डल आदियों में अथवा पराविद्या से प्राप्तव्य मोक्षलोक में (असि) विद्यमान हो, और हे (वृत्रहन्) अविद्या आदि दोषों के विनाशक ! (यत्) क्योंकि, तुम (अर्वावति) समीप स्थित पर्वत, नदी, सागर आदि में अथवा अपरा विद्या से प्राप्तव्य इहलोक के ऐश्वर्य में (असि) विद्यमान हो, (अतः) इसलिए, हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर ! (सुतावान्) उपासना-रस को अभिषुत किये हुए यजमान (त्वा) तुम्हारी (द्युगत्) शीघ्र ही अथवा जिससे मोक्ष प्राप्त हो सके, इस प्रकार (केशिभिः) ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशमान (गीर्भिः) वेदवाणियों से (आ विवासति) पूजा कर रहा है ॥२॥ इस मन्त्र में शक्र, वृत्रहन्, इन्द्र इन सबके इन्द्रवाचक प्रसिद्ध होने से पुनरुक्ति प्रतीत होती है, किन्तु योगार्थ ग्रहण करने से पुनरुक्ति का परिहार हो जाता है, अतः पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार है। ‘वति, वति’ तथा ‘सुता, सति’ में छेकानुप्रास है ॥२॥
सब कर्म करने में समर्थ, दूर से दूर और समीप से समीप विद्यमान, अविद्या-पाप आदि के विनाशक, सब ऐश्वर्यों के स्वामी परमात्मा की ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश से भरपूर साममन्त्रों के गान से सबको भक्तिपरायण होकर शीघ्र ही उपासना करनी चाहिए और उसकी उपासना से ऐहिक तथा पारलौकिक आनन्द प्राप्त करना चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मनो महिमानमुपवर्ण्य तदुपासनाविषयमाह।
हे (शक्र) शक्तिशालिन् परमेश्वर ! (यत्) यस्मात्, त्वम् (परावति) सुदूरस्थे सूर्यनक्षत्रचन्द्रमण्डलादिषु, पराविद्याग्राह्ये मोक्षलोके वा (असि) विद्यसे, किञ्च हे (वृत्रहन्) अविद्यादिदोषहन्तः ! (यत्) यस्मात्, त्वम् (अर्वावति) समीपस्थे पर्वतसरित्सागरादौ, अपराविद्याग्राह्ये इहलोकैश्वर्ये वा (असि) विद्यसे, (अतः) अस्मात् हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर ! (सुतावान्) अभिषुतोपासनारसो यजमानः (त्वा) त्वाम् (द्युगत्२) क्षिप्रम्। द्युगत् इति क्षिप्रनाम निघं० २।१५। यद्वा दिवं मोक्षधाम प्रति गच्छन् यथा स्यात्तथा (केशिभिः) ज्ञानप्रकाशेन प्रकाशमानाभिः। केशी केशा रश्मयः तैस्तद्वान् भवति, काशनाद् वा प्रकाशनाद् वा। निरु० १२।२६। (गीर्भिः) वेदवाग्भिः (आ विवासति) समन्ततः परिचरति। विवासतिः परिचर्याकर्मा। निघं० ३।५। परमेश्वरस्य दूरस्थनिकटस्थरूपम् अन्यत्रापि वर्णितम् यथा, ‘तद् दू॒रे तद्वऺन्ति॒के’ य० ४०।५’, ‘दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम्।’ मु० ३।१।७ इति ॥२॥ अत्र शक्र, वृत्रहन्, इन्द्र इति सर्वेषामिन्द्रपर्यायत्वेन पौनरुक्त्यप्रतीतेः, योगार्थग्रहणेन च पुनरुक्तिपरिहारात् पुनरुक्तवदाभासोऽलङ्कारः। ‘वति, वति’ ‘सुता, सति’ इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥
सर्वकर्मक्षमो दूरात् सुदूरे निकटान्निकटे विद्यमानोऽविद्यापापादीनां हन्ता सकलैश्वर्यशाली परमात्मा ज्ञानविज्ञानप्रकाशपूर्णानां साममन्त्राणां गानेन भक्तिप्रवणैः सर्वैः क्षिप्रमेव समुपासनीयस्तदुपासनेन चैहिकपारलौकिकानन्दः प्रापणीयः ॥२॥