नि꣡ त्वा꣢ नक्ष्य विश्पते द्यु꣣म꣡न्तं꣢ धीमहे व꣣य꣢म् । सु꣣वी꣡र꣢मग्न आहुत ॥२६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)नि त्वा नक्ष्य विश्पते द्युमन्तं धीमहे वयम् । सुवीरमग्न आहुत ॥२६॥
नि꣢ । त्वा꣣ । नक्ष्य । विश्पते । द्युम꣡न्त꣢म् । धी꣣महे । वय꣢म् सु꣣वी꣡र꣢म् । सु꣣ । वी꣡र꣢꣯म् । अ꣣ग्ने । आहुत । आ । हुत ॥२६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
परमात्मा को हम हृदय में धारण करते हैं, यह कहते हैं।
हे (नक्ष्य) प्राप्तव्य, शरणागतों के हितकर, (विश्पते) प्रजापालक, (आहुत) बहुतों से सत्कृत (अग्ने) सबके अग्रणी, ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! (वयम्) हम उपासक (द्युमन्तम्) दीप्तिमान्, (सुवीरम्) श्रेष्ठ वीरतादि गुणों को प्राप्त करानेवाले (त्वा) आपको (निधीमहे) निधिवत् अपने अन्तःकरण में धारण करते हैं अथवा आपका ध्यान करते हैं ॥६॥
सबको चाहिए कि शरणागतवत्सल, प्रजाओं के पालनकर्त्ता, बहुत जनों से वन्दित, वीरता को देनेवाले, तेज के निधि परमेश्वर को अपने हृदय में धारण करें और उसका ध्यान करें ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानं स्वहृदये धारयाम इत्याह।
हे (नक्ष्य२) उपगन्तव्य शरण्य। नक्षितुमुपगन्तुमर्हो नक्ष्यः। नक्षतिः गतिकर्मा निघं० २।१४। (विश्पते) प्रजापालक, (आहुत३) बहुजनसत्कृत (अग्ने) सर्वाग्रणीः ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! (वयम्) उपासकाः (द्युमन्तम्) दीप्तिमन्तम् (सुवीरम्) शोभनाः श्रेष्ठाः वीराः वीरतादिगुणाः यस्मात्स सुवीरः तम्। बहुव्रीहौ वीरवीर्यौ च ६।२।१२० इति सोः परो वीरशब्द आद्युदात्तः। (त्वा) त्वाम् (निधीमहे) निधिवत् स्वान्तःकरणे निदध्महे, नितरां ध्यायामो वा। निपूर्वात् धा धातोर्ध्यैधातोर्वा लटि छान्दसं रूपम् ॥६॥४
शरणागतवत्सलः, प्रजापालको, बहुजनवन्दितो, वीरत्वप्रदाता, तेजोनिधिः परमेश्वरः सर्वैः स्वहृदि धारणीयो ध्यातव्यश्च ॥६॥