प्र꣢ व꣣ इ꣡न्द्रा꣢य बृह꣣ते꣡ मरु꣢꣯तो꣣ ब्र꣡ह्मा꣢र्चत । वृ꣣त्र꣡ꣳ ह꣢नति वृत्र꣣हा꣢ श꣣त꣡क्र꣢तु꣣र्वज्रेण श꣣त꣡प꣢र्वणा ॥२५७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र व इन्द्राय बृहते मरुतो ब्रह्मार्चत । वृत्रꣳ हनति वृत्रहा शतक्रतुर्वज्रेण शतपर्वणा ॥२५७॥
प्र꣢ । वः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । बृ꣣हते꣢ । म꣡रु꣢꣯तः । ब्र꣡ह्म꣢꣯ । अ꣣र्चत । वृत्र꣢म् । ह꣢नति । वृत्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । श꣣त꣡क्र꣢तुः । श꣣त꣢ । क्र꣣तुः । व꣡ज्रे꣢꣯ण । श꣣त꣡प꣢र्वणा । श꣣त꣢ । प꣣र्वणा ॥२५७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह विषय है कि परमात्मा और सेनाध्यक्ष हमारे शत्रुओं का संहार करें।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (मरुतः) मेरे प्राणो ! (वः) तुम (बृहते) महान् (इन्द्राय) परमेश्वर के लिए (ब्रह्म) साम-स्तोत्र को (प्र अर्चत) प्रेरित करो। वह (वृत्रहा) पापहन्ता (शतक्रतुः) अनन्त प्रज्ञावाला तथा अनन्त कर्मोंवाला परमेश्वर, अपने (शतपर्वणा) बहुमुखी (वज्रेण) वीर्य से (वृत्रम्) पाप को (हनति) नष्ट करे ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। हे (मरुतः) राष्ट्रवासी प्रजाजनो ! (वः) तुम लोग (बृहते) महान् (इन्द्राय) वीर सेनाध्यक्ष के लिए (ब्रह्म) स्तोत्र अर्थात् प्रार्थनावचन (अर्चत) प्रेरित करो। वह (वृत्रहा) अत्याचारियों का संहारक (शतक्रतुः) अनेक शत्रु-विध्वंसक कार्यों का कर्ता सेनाध्यक्ष (शतपर्वणा वज्रेण) सौ कीलों से युक्त गदादि वज्र से अथवा सौ गोलों या गोलियों के आधारभूत तोप, बन्दूक आदि शस्त्र से (वृत्रम्) राष्ट्र की उन्नति में प्रतिबन्धक मायावी शत्रु को (हनति) मारे ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, ‘वृत्रं, वृत्र’ में छेकानुप्रास और ‘शत, शत’ में लाटानुप्रास है ॥५॥
जैसे परमेश्वर उपासक के काम-क्रोध आदि तथा पाप आदि रिपुओं का संहार करता है, वैसे ही सेनाध्यक्ष को चाहिए कि राष्ट्र के सब शत्रुओं का समूल उन्मूलन करे ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरः सेनाध्यक्षश्च शत्रून् हन्यादित्याह।
प्रथमः—परमात्मपरः। हे (मरुतः२) मदीयाः प्राणाः ! (वः) यूयम् (बृहते) महते (इन्द्राय) परमेश्वराय (ब्रह्म) सामस्तोत्रम् (प्र अर्चत३) प्रेरयत। धातूनामनेकार्थत्वाद् अर्चतिरत्र प्रेरणकर्मा। सः (वृत्रहा) पापहन्ता (शतक्रतुः४) बहुप्रज्ञः बहुकर्मा च परमेश्वरः (शतपर्वणा) बहुमुखेन (वज्रेण) वीर्येण। वीर्यं वै वज्रः। श० ७।३।१।१९। (वृत्रम्) पापम् (हनति) हन्यात्। ‘हन हिंसागत्योः, लेट्प्रयोगः, लेटोऽडाटौ’ अ० ३।४।९४ इत्यडागमः ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। हे (मरुतः) राष्ट्रवासिनः प्रजाजनाः ! (वः) यूयम् (बृहते) महते (इन्द्राय) वीराय नृपतये सेनाध्यक्षाय वा (ब्रह्म) स्तोत्रम्, प्रार्थनावचनम् (अर्चत) प्रेरयत। सः (वृत्रहा) अत्याचारिणां हन्ता (शतक्रतुः) अनेकेषां शत्रुविध्वंसकर्मणां कर्ता सेनाध्यक्षः (शतपर्वणा) वज्रेण शतकीलकयुक्तेन गदादिकेन वज्रेण, शतगोलकगोलिकाधारकेण शतघ्नीभुशुण्ड्यादिना वा शस्त्रेण (वृत्रम्) राष्ट्रोन्नतिप्रतिबन्धकं मायाविनं शत्रुम् (हनति) हन्यात् ॥५॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘वृत्रं, वृत्र’ इत्यत्र छेकानुप्रासः, ‘शत, शत’ इत्यत्र च लाटानुप्रासः ॥५॥
यथा परमेश्वर उपासकस्य कामक्रोधादीन् पापादींश्च रिपून् हिनस्ति, तथैव सेनाध्यक्षेण राष्ट्रस्य सर्वे शत्रवः समूलमुन्मूलनीयाः ॥५॥