य꣡था꣢ गौ꣣रो꣢ अ꣣पा꣢ कृ꣣तं꣢꣫ तृष्य꣣न्ने꣡त्यवे꣢रिणम् । आ꣣पित्वे꣡ नः꣢ प्रपि꣣त्वे꣢꣫ तूय꣣मा꣡ ग꣢हि꣣ क꣡ण्वे꣢षु꣣ सु꣢꣫ सचा꣣ पि꣡ब꣢ ॥२५२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यथा गौरो अपा कृतं तृष्यन्नेत्यवेरिणम् । आपित्वे नः प्रपित्वे तूयमा गहि कण्वेषु सु सचा पिब ॥२५२॥
य꣡था꣢꣯ । गौ꣣रः꣢ । अ꣣पा꣢ । कृ꣣त꣢म् । तृ꣡ष्य꣢न् । ए꣡ति꣢꣯ । अ꣡व꣢꣯ । इ꣡रि꣢꣯णम् । आ꣣पित्वे꣢ । नः꣣ । प्रपित्वे꣢ । तू꣡य꣢꣯म् । आ । ग꣣हि । क꣡ण्वे꣢꣯षु । सु । स꣡चा꣢꣯ पि꣡ब꣢꣯ ॥२५२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में गौरमृग के दृष्टान्त से परमात्मा को प्रीतिरस-पान के लिए बुलाया जा रहा है।
(यथा) जिस प्रकार (गौरः) गौरमृग (तृष्यन्) प्यासा होकर (इरिणम्) मरुस्थल को (अव) छोड़ कर (अपा) जल से (कृतम्) पूर्ण किये हुए जलाशय अथवा जलप्रचुर देश को (एति) चला जाता है, वैसे ही (आपित्वे) बन्धुभाव के अर्थात् प्रीतिरस के (प्रपित्वे) प्राप्त हो जाने पर, अर्थात् प्रीतिरूप जल से हमारे हृदय के पूर्ण हो जाने पर, आप (तूयम्) शीघ्र ही (नः) हमारे पास (आगहि) आइए, और (कण्वेषु) हम मेधावियों के पास आकर (सचा) एक साथ (सु पिब) भली-भाँति हमारे प्रीतिरस-रूप सोम का पान कीजिए ॥१०॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ‘पित्वे, पित्वे’ में यमक है ॥१०॥
प्यासा गौर मृग जैसे जल-रहित मरुस्थल को छोड़कर जलप्रचुर प्रदेश में चला जाता है, वैसे ही प्रीतिरस का प्यासा परमात्मा भी प्रीतिरहित हृदयों को छोड़कर प्रीतिरस से जिनके हृदय परिपूर्ण हैं, ऐसे मेधावी जनों के पास चला जाता है। परमात्मा के सर्वव्यापक होने से उसमें जाने-आने की क्रियाएँ क्योंकि सम्भव नहीं हैं, इसलिए वेदों में अनेक स्थानों पर वर्णित परमात्मा के गमन-आगमन की प्रार्थना आलङ्कारिक जाननी चाहिए। गमन से उसे भूल जाना तथा आगमन से उसका स्मरण या आविर्भाव लक्षित होता है ॥१०॥ इस दशति में अङ्गों को शरीर में यथास्थान जोड़ने आदि इन्द्र के कौशल का वर्णन होने से, उसके गुण-कर्मों का वर्णन होने से और इन्द्र नाम से जीवात्मा, प्राण, शल्यचिकित्सक, राजा आदि के भी चरित्र का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति जाननी चाहिए ॥ तृतीय प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ तृतीय अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ गौरमृगस्य दृष्टान्तेन परमात्मानं प्रीतिरसपानायाह्वयति।
(यथा) येन प्रकारेण (गौरः२) गौरमृगः (तृष्यन्) पिपासितः सन् (इरिणम्) मरुप्रदेशम्। इरिणम्………अपरता अस्मादोषधय इति वा। निरु० ९।६। (अव) अवहाय (अपा) जलेन। नित्यबहुवचनान्तोऽपि ‘अप्’ शब्दः अत्रैकवचने प्रयुक्तः। ‘ऊडिदंपदाद्यप्०। अ० ६।१।१६५’ इति विभक्तिरुदात्ता। (कृतम्) परिपूर्णं जलाशयं जलप्रदेशं वा (एति) गच्छति, तथैव (आपित्वे) बन्धुत्वे प्रीतिरसे इत्यर्थः (प्रपित्वे) प्राप्ते सति। प्रपित्वे अभीके इत्यासन्नस्य। प्रपित्वे प्राप्ते, निरु ३।२०। त्वत्प्रीतिजलेनास्माकं हृदये पूर्णे सतीत्यर्थः, त्वम् (तूयम्) शीघ्रम्। तूयमिति क्षिप्रनाम। निघं० २।१५। (नः) अस्मान् (आगहि) आगच्छ (कण्वेषु) मेधाविषु अस्मासु। कण्व इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। (सचा) सह, युगपदित्यर्थः। सचा सह। निघं० ५।५। (सु पिब) सम्यक्तया प्रीतिरसरूपं सोमम् आस्वादय ॥१०॥ अत्रोपमालङ्कारः। पित्वे, पित्वे इति यमकम्।
पिपासितो गौरमृगो यथा जलविहीनं मरुं परित्यज्य जलप्रचुरं प्रदेशं गच्छति तथैव प्रीतिरसपिपासुः परमात्मापि प्रीतिविहीनानि हृदयान्यपहाय प्रीतिरसनिर्भरहृदयान् मेधाविनः प्रतिपद्यते। परमात्मनः सर्वव्यापित्वात् तद्गमनागमनासंभवाद् वेदेषु बहुशो वर्णितं तद्गमनागमनप्रार्थनमालङ्कारिकमेवेति विज्ञेयम्। गमनेन तद्विस्मरणम्, आगमनेन च तत्स्मरणं तदाविर्भावो वा लक्ष्यते ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य अङ्गसन्धानादिकौशलवर्णनात्, सोमपानाय तस्याह्वानात्, तस्य गुणकर्माख्यानाद्, इन्द्रनाम्ना जीवात्म-प्राण-शल्यचिकित्सक-नृपत्यादीनामपि चरित्रवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति तृतीयप्रपाठके द्वितीयार्धे प्रथमा दशतिः। इति तृतीयाध्याये द्वितीयः खण्डः ॥