य꣢ ऋ꣣ते꣡ चि꣢द꣣भिश्रि꣡षः꣢ पु꣣रा꣢ ज꣣त्रु꣡भ्य꣢ आ꣣तृ꣡दः꣢ । स꣡न्धा꣢ता स꣣न्धिं꣢ म꣣घ꣡वा꣢ पुरू꣣व꣢सु꣣र्नि꣡ष्क꣢र्ता꣣ वि꣡ह्रु꣢तं꣣ पु꣡नः꣢ ॥२४४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः । सन्धाता सन्धिं मघवा पुरूवसुर्निष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥२४४॥
यः꣢ । ऋ꣣ते꣢ । चि꣣त् । अभिश्रि꣡षः꣢ । अ꣣भि । श्रि꣡षः꣢꣯ । पु꣣रा꣢ । ज꣣त्रु꣡भ्यः꣢ । आ꣣तृ꣡दः꣢ । आ꣣ । तृ꣡दः꣢꣯ । स꣡न्धा꣢꣯ता । स꣣म् । धा꣣ता । सन्धि꣢म् । स꣣म् । धि꣢म् । म꣣घ꣡वा꣢ । पु꣣रूव꣡सुः꣢ । पु꣣रु । व꣡सुः꣢꣯ । नि꣡ष्क꣢꣯र्ता । निः । क꣣र्त्ता । वि꣡ह्रु꣢꣯तम् । वि । ह्रु꣣तम् । पु꣢नरि꣡ति꣢ ॥२४४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा, जीवात्मा, प्राण और शल्यचिकित्सक का कर्तृत्व वर्णित है।
(यः) जो (अभिश्रिषः) जोड़नेवाले पदार्थ गोंद, सरेस, प्लास्टर आदि के (ऋते चित्) बिना ही (जत्रुभ्यः) गर्दन की हड्डियों पर से (आतृदः) गले के कटने से (पुरा) पहले ही (सन्धिम्) जोड़ने योग्य अवयव को (सन्धाता) जोड़ देता है, अर्थात् शस्त्र आदि से गले के एक भाग के कट जाने पर भी कटे हुए भाग को प्राकृतिक रूप से भरकर पुनः स्वस्थ कर देता है, जिससे सिर कटकर गिरता नहीं, वह (पुरूवसुः) बहुत से शरीरावयवों को यथास्थान बसानेवाला (मघवा) चिकित्सा-विज्ञानरूप धन का धनी परमेश्वर, जीवात्मा, प्राण वा शल्य-चिकित्सक (विह्रुतम्) टेढ़े हुए भी अङ्ग को (पुनः) फिर से (निष्कर्ता) ठीक कर देता है ॥२॥ इस मन्त्र में जोड़नेवाले द्रव्य रूप कारण के बिना ही जोड़ने रूप कार्य की उत्पत्ति का वर्णन होने से विभावना अलङ्कार है ॥२॥
अहो, परमेश्वर की कैसी शरीर-रचना की चतुरता है ! यदि वह जोड़नेवाले द्रव्य गोंद आदि के बिना ही बीच में जोड़ लगाकर सिर को धड़ के साथ दृढ़तापूर्वक जोड़ न देता तो कभी भी कहीं भी सिर धड़ से अलग होकर गिर जाता। यह भी परमेश्वर का ही कर्तृत्व है कि शरीर का कोई भी अङ्ग यदि घायल या टेढ़ा हो जाता है तो जीवात्मा और प्राण की सहायता से तथा शरीर की स्वाभाविक क्रिया से फिर घाव भर जाता है और टेढ़ा अङ्ग सीधा हो जाता है। कुशल शल्य-चिकित्सक भी इस कर्म में परमेश्वर का अनुकरण करता है। युद्ध में यदि शत्रु के शस्त्र-प्रहार से किसी योद्धा का गले का एक भाग कट जाता है तो वह कटेभाग को सुई से सीकर और ओषधि का लेप करके पुनः स्वस्थ कर देता है। दुर्घटना आदि से यदि किसी का अङ्ग विकृत या टेढ़ा हो जाता है तो उसे भी वह उचित उपायों से ठीक कर देता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मनः जीवात्मनः प्राणस्य शल्यचिकित्सकस्य च कर्तृत्वं वर्णयन्नाह।
(यः अभिश्रिषः२) संश्लेषणद्रव्यात् (ऋते चित्) विनैव (जत्रुभ्यः३) ग्रीवास्थिभ्यः (आतृदः) आतर्दनात् कण्ठच्छेदात्। हिंसार्थात् तृदधातोः ‘सृपितृदोः कसुन्’ अ० ३।४।१७ इति भावलक्षणे कसुन् प्रत्ययः। (पुरा) पूर्वमेव (सन्धिम्) सन्धातव्यम् अवयवम् (सन्धाता) संयोजयिता भवति, शस्त्रादिना कृत्तेऽपि कण्ठैकदेशे कृत्तं भागं प्राकृतिकरूपेण संपूर्य पुनः स्वस्थं करोति, येन शीर्षपतनं न भवतीत्यर्थः। सः (पुरूवसुः) बहूनां शरीराङ्गानाम् यथास्थानं वासयिता (मघवा) चिकित्साविज्ञानरूपधनसम्पन्नः इन्द्रः परमेश्वरः जीवः प्राणः शल्यचिकित्सको वा। मघमिति धननाम। निघं० २।१०। ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ’ अ० ५।२।१२२ वा० इति वनिप्। (विह्रुतम्४) वक्रीभूतमपि अङ्गम्। ह्वृ कौटिल्ये, निष्ठायां ‘ह्रु ह्वरेश्छन्दसि’ अ० ७।२।३१ इति धातोः ह्रुः आदेशः। (पुनः) भूयोऽपि (निष्कर्ता) संस्कर्ता भवति ॥२॥ अत्र संश्लेषणद्रव्यरूपकारणाभावेऽपि सन्धानरूपकार्योत्पत्तिवर्णनाद् विभावनालङ्कारः ॥२॥
अहो परमेश्वरस्य कीदृशं शरीररचनाचातुर्यम्। यद्यसौ संश्लेषणद्रव्येण विनैव मध्ये सन्धिं कृत्वा शिरः कबन्धेन सुदृढं न समयोजयिष्यत् तर्हि कदापि क्वचिदपि शिरः कबन्धाच्छिन्नं भूत्वा पृथगभविष्यत्। एतदपि परमेश्वरस्यैव कर्तृत्वं यच्छरीरस्य किमप्यङ्गं यदि कदाचिद् विद्धं वक्रं वा जायते तदा जीवात्मनः प्राणस्य च साहाय्येन शरीरस्य स्वाभाविकक्रियया च पुनरपि तत् प्ररोहति प्रकृतिं चापद्यते। कुशलः शल्यचिकित्सकोऽप्येतस्मिन् कर्मणि परमेश्वरमनुकरोति। संग्रामे यदि शत्रोः शस्त्रप्रहारेण कस्यचिद् योद्धुर्गलैकदेशः कृत्यते तदा स कृत्तं भागं सूच्या संसीव्यौषधिं संलिप्य च पुनः स्वस्थं करोति। दुर्घटनादिकारणाद् यदि कस्यचिदङ्गं विकृतं वक्रं वा जायते तदा तदप्युचितैरुपायैः स संस्करोति ॥२॥