उ꣣क्थं꣢ च꣣ न꣢ श꣣स्य꣡मा꣢नं꣣ ना꣡गो꣢ र꣣यि꣡रा चि꣢꣯केत । न꣡ गा꣢य꣣त्रं꣢ गी꣣य꣡मा꣢नम् ॥२२५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उक्थं च न शस्यमानं नागो रयिरा चिकेत । न गायत्रं गीयमानम् ॥२२५॥
उ꣣क्थ꣢म् । च꣣ । न꣢ । श꣣स्य꣡मा꣢नम् । न । अ꣡गोः꣢꣯ । अ । गोः꣣ । रयिः꣢ । आ । चि꣣केत । न꣢ । गा꣣यत्रम् । गी꣣य꣡मा꣢नम् ॥२२५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह बताते हैं कि किसका किया हुआ भी कार्य व्यर्थ होता है।
(अगोः) अश्रद्धालु जन का (न) न तो (शस्यमानम्) उच्चारण किया जाता हुआ (उक्थम् च) स्तोत्र ही, (न) न ही (रयिः) दान किया जाता हुआ धन, (न) न ही (गीयमानम्) गान किया जाता हुआ (गायत्रम्) सामगान (आ चिकेत) कभी किसी से जाना गया है। अतः श्रद्धापूर्वक ही परमेश्वर-विषयक-स्तुति आदि कर्म करना चाहिए ॥३॥ इस मन्त्र में स्तोत्रोच्चारण, गायत्रगान आदि के कारण के होने पर भी उनके ज्ञान-रूप कार्य की अनुत्पत्ति वर्णित होने से विशेषोक्ति अलङ्कार है ॥३॥
श्रद्धा-रहित मनुष्य का उच्चारण किया गया भी स्तोत्र अनुच्चारित के समान होता है, दिया हुआ भी दान न दिये हुए के समान होता है और गाया हुआ भी सामगान न गाये हुए के समान होता है। इसलिए श्रद्धा के साथ ही सब शुभ कर्म सम्पादित करने चाहिएँ ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
कस्य कृतमपि कार्यं वृथैव भवतीत्याह।
(अगोः२) अस्तोतुः अश्रद्दधानस्य जनस्य। गायतीति गौः वेदपाठी स्तोता। गौरिति स्तोतृनामसु पठितम्। निघं० ३।१६। यो गायन्नपि श्रद्दधानेन मनसा न गायति सः अगौरित्युच्यते तस्य। (न) नैव (शस्यमानम्) उदीर्यमाणम् (उक्थम् च) स्तोत्रं हि (न) नैव (रयिः३) दीयमानं धनम्, (न) नैव च (गीयमानम्) गानविषयीक्रियमाणम् (गायत्रम्) गायत्रनामकं साम (आचिकेत) आचिकिते, कदापि अवबुद्धं केनचित्। कित ज्ञाने लिट्, कर्मणि परस्मैपदं छान्दसम्। अतः श्रद्धयैव इन्द्रस्तुत्यादिकं कर्म करणीयमिति भावः ॥३॥ अत्र उक्थशंसनगायत्रगानादिरूपे कारणे सत्यपि तज्ज्ञानरूपकार्यानुत्पत्तिवर्णनाद् विशेषोक्तिरलङ्कारः ॥३॥
श्रद्धाविहीनस्य जनस्य शस्तमपि स्तोत्रमशस्तमिव भवति, दत्तमपि धनमदत्तमिव भवति, गीतमपि च सामगानमगीतमिव भवति। अतः श्रद्धयैव सर्वाणि शुभकार्याणि सम्पाद्यानि ॥३॥