अ꣡ती꣢हि मन्युषा꣣वि꣡ण꣢ꣳ सुषु꣣वा꣢ꣳस꣣मु꣡पे꣢꣯रय । अ꣣स्य꣢ रा꣣तौ꣢ सु꣣तं꣡ पि꣢ब ॥२२३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अतीहि मन्युषाविणꣳ सुषुवाꣳसमुपेरय । अस्य रातौ सुतं पिब ॥२२३॥
अ꣡ति꣢꣯ । इ꣣हि । मन्युषावि꣡ण꣢म् । म꣣न्यु । सावि꣡न꣢म् । सु꣣षुवाँ꣡स꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । आ । ई꣣रय । अस्य꣢ । रा꣣तौ꣢ । सु꣣त꣢म् । पि꣣ब ॥२२३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में यह कहा गया है कि इन्द्र किससे सोमरस का पान करे।
प्रथम—अध्यात्म-पक्ष में। हे इन्द्र परमात्मन् ! आप (मन्युषाविणम्) जो उदासीन भाव से अर्थात् हृदय में प्रीति रखे बिना उपासना करता है, उसे (अति इहि) लाँघ जाइये। (सुषुवांसम्) हार्दिक प्रीति से उपासनारस अभिषुत करनेवाले को (उप-आ-ईरय) अपने समीप ले आइये। (अस्य) इस यजमान के (रातौ) आत्म-समर्पण-प्रवृत्त होने पर (सुतम्) अभिषुत श्रद्धा रस का (पिब) पान कीजिए ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! आप (मन्युषाविणम्) क्रोध उगलनेवाले दुष्ट शत्रु को (अति-इहि)पराजित कीजिए। (सुषुवांसम्) कर-प्रदानरूप सोमयाग करनेवाले प्रजाजन को (उप-आ-ईरय) प्राप्त होकर शुभ कर्मों में प्रेरित कीजिए। (अस्य) इस प्रजाजन के (रातौ) कर-प्रदान के प्रवृत्त होने पर (सुतम्) दिये हुए कर को (पिब) स्वीकार कीजिए। और स्वीकार करके उसे सहस्रगुणित रूप में प्रजा-कल्याण के कार्य में ही व्यय कर दीजिए, जैसे सूर्य भूमिष्ठ रसों को सहस्रगुणित रूप में बरसा देने के लिए ही ग्रहण करता है ॥ तृतीय—अध्ययनाध्यापन के पक्ष में। हे इन्द्र ! विद्युत् के समान तीव्र बुद्धिवाले विद्यार्थी ! तू (मन्युषाविणम्) क्रोध, द्वेष आदि से विद्यादान करनेवाले गुरु को (अति-इहि) त्याग दे, उसके पास विद्या पढ़ने के लिए मत जा। (सुषुवांसम्) प्रेम से विद्यादान करनेवाले के पास ही (उप-आ-ईरय) पहुँचकर विद्या पढ़ने के लिए प्रार्थना कर। (अस्य) उस गुरु के (रातौ) विद्यादान के प्रवृत्त होने पर (सुतम्) ज्ञानरस को (पिब) पी । इससे यह अभिप्राय सूचित होता है कि अध्यापक को छात्रों के प्रति दिव्य मन रखते हुए रमण-पद्धति से पढ़ाना चाहिए। अथर्ववेद में छात्रों की ओर से आचार्य को कहा गया है कि हे वाणी के अधिपति तथा विद्याधन के स्वामी आचार्यप्रवर ! आप दिव्य मन के साथ हमारे बीच में पुनः-पुनः आइये और ऐसी रमण-पद्धति से हमें विद्यादान दीजिए कि सुना हुआ शास्त्र कभी भूलें नहीं (अथ० १।१।२) ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
परमेश्वर उसके श्रद्धारस को स्वीकार नहीं करता, जो उदासीन मन से देता है। राजा भी शत्रु को नहीं, अपितु कर (टैक्स) देनेवाले प्रजाजन को ही बढ़ाता है। गुरुओं को भी सरल पद्धति से और प्रेमपूर्वक ही छात्रों को पढ़ाना चाहिए, जटिल पद्धति से तथा क्रोध-विद्वेष आदि के वशीभूत होकर नहीं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रः कस्य सोमरसं पिबेदित्याह।
प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे इन्द्र परमेश्वर ! त्वम् (मन्युषाविणम्२) यो मन्युना उन्मनस्त्वेन हार्दिकप्रीतिराहित्येन सुनोति उपास्ते तम् (अति इहि) अतिक्रम्य गच्छ। (सुषुवांसम्) हार्दिकप्रीत्या उपासनारसमभिषुतवन्तम्। षुञ् अभिषवे, लिटः क्वसुः। (उप-आ-ईरय) स्वान्तिके आनय। ईर गतौ कम्पने च, ण्यन्तः। अस्य यजमानस्य (रातौ) आत्मसमर्पणे प्रवृत्ते सति (सुतम्) अभिषुतम् श्रद्धारसम् (पिब) आस्वादय ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। हे इन्द्र राजन् ! त्वम् (मन्युषाविणम्) क्रोधोद्वमितारं दुष्टशत्रुम् (अति-इहि) पराजयस्व। (सुषुवांसम्) करप्रदानरूपं सोमसवनं कृतवन्तं प्रजाजनम् (उप-आ-ईरय) उपेत्य शुभकर्मसु प्रेरय। (अस्य) प्रजाजनस्य (रातौ) करप्रदाने प्रवृत्ते सति (सुतम्) अभिषुतं करम् (पिब) स्वीकुरु, स्वीकृत्य च “प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत्। “सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः” (रघु० १।१८) इति न्यायेन सहस्रगुणं कृत्वा प्रजाहितायैव व्ययस्व ॥ अथ तृतीयः—अध्ययनाध्यापनपरः। हे इन्द्र विद्युद्वत्तीव्रबुद्धे विद्यैश्वर्यजिज्ञासो विद्यार्थिन्३ ! त्वम् (मन्युषाविणम्) मन्युना कोपविद्वेषादिना सुनोति विद्यां ददाति यस्तं गुरुम् (अति-इहि) अतिक्रमस्व, तत्सकाशे विद्यामध्येतुं मा यासीः। (सुषुवांसम्) यः प्रेम्णा विद्यां ददाति तम् (उप-आ-ईरय) उपेत्य विद्यां दातुं प्रार्थय। (अस्य) प्रेम्णा विद्यादातुः गुरोः (रातौ) विद्यादाने प्रवृत्ते (सुतं) ज्ञानरसं (पिब) आस्वादय। देवेन मनसा रमणपद्धत्या च छात्राणामध्यापनमुचितमिति भावः। यथाह श्रुतिः—“पुन॒रेहि॑ वाचस्पते दे॒वेन॒ मन॑सा स॒ह। वसो॑ष्पते॒ निर॑मय॒ मय्ये॒वास्तु॒ मयि॑ श्रु॒तम्। अथ० १।१।२” इति ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
परमेश्वरस्तस्य श्रद्धारसं न स्वीकरोति य उदासीनेन मनसा प्रयच्छति। राजापि शत्रुं न, प्रत्युत करप्रदातारं प्रजाजनमेव वर्द्धयति। गुरुभिरपि सरलपद्धत्या प्रेम्णा च छात्राः पाठनीयाः, न तु जटिलपद्धत्या क्रोधविद्वेषादिवशीभूतैर्वा ॥१॥