अ꣣ग्नि꣢स्ति꣣ग्मे꣡न꣢ शो꣣चि꣢षा꣣ य꣢ꣳ स꣣द्वि꣢श्वं꣣ न्या꣢३꣱त्रि꣡ण꣢म् । अ꣣ग्नि꣡र्नो꣢ वꣳसते र꣣यि꣢म् ॥२२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अग्निस्तिग्मेन शोचिषा यꣳ सद्विश्वं न्या३त्रिणम् । अग्निर्नो वꣳसते रयिम् ॥२२॥
अ꣣ग्निः꣢ । ति꣣ग्मे꣡न꣢ । शो꣣चि꣡षा꣢ । यँ꣡ऽस꣢꣯त् । वि꣡श्व꣢꣯म् । नि । अ꣣त्रि꣡ण꣢म् । अ꣣ग्निः꣢ । नः꣣ । वँऽसते । र꣣यि꣢म् ॥२२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
परमात्मा स्तोता को क्या फल प्रदान करे, यह कहते हैं।
(अग्निः) तेजोमय परमात्मा (तिग्मेन) तीक्ष्ण (शोचिषा) तेज से (विश्वम्) समस्त (अत्रिणम्) भक्षक काम-क्रोधादि अन्तःशत्रुवर्ग को और चोर, लुटेरे आदि सामाजिक शत्रुवर्ग को (नियंसत्) नियन्त्रित करे। (अग्निः) वह अग्निपदवाच्य परमात्मा (नः) हमारे लिए (रयिम्) सोना-चाँदी, प्रजा-पशु आदि लौकिक धन तथा सत्य, अहिंसा आदि आध्यात्मिक धन (वंसते) बाँटकर देवे ॥२॥ श्लेष से भौतिक अग्नि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥२॥
जैसे पार्थिव अग्नि या विद्युत् तीक्ष्ण तेज से अपने पास आयी वस्तु को दग्ध करता है और शिल्पादि कर्मों में प्रयुक्त होकर धन प्रदान करता है, वैसे ही परमात्मा-रूप अग्नि उपासकों के आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं का निग्रह करता है और उन उपासकों को सांसारिक एवं आध्यात्मिक सम्पत्ति वितीर्ण करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
परमात्मा स्तोत्रे किं फलं प्रयच्छेदित्याह।
(अग्निः) तेजोमयः परमात्मा (तिग्मेन) तीक्ष्णेन (शोचिषा) तेजसा (विश्वम्) समस्तम् (अत्रिणम्२) भक्षकं कामक्रोधादिकमन्तःशत्रुवर्गं, चौरलुण्ठकादिकं सामाजिकञ्च रिपुवर्गम्। अत्ति भक्षयति हिनस्ति यः सोऽत्री। अद् भक्षणे धातोः अदेस्त्रिनिश्च उ० ४।६९ इति त्रिनिः। पाप्मानोऽत्रिणः इति ष० ब्रा० ३।१। (नियंसत्३) नियच्छतु। निपूर्वात् यम उपरमे धातोः विध्यर्थे लेटि सिब्बहुलं लेटि अ० ३।१।३४ इति सिपि रूपम्। (अग्निः) स एवाग्निपदवाच्यः परमात्मा (नः) अस्मभ्यम् (रयिम्) लौकिकं धनं हिरण्यरजतप्रजापश्वादिकम् आध्यात्मिकञ्च धनं सत्याहिंसादि (वंसते४) विभज्य ददातु। वन संभक्तौ धातोर्लेटि सिबागमः ॥२॥ श्लेषेण भौतिकाग्निपक्षेऽपि योजनीयम् ॥२॥
यथा पार्थिवोऽग्निर्विद्युदग्निर्वा तिग्मेन शोचिषा प्राप्तं वस्तु दहति, शिल्पादिकर्मसु योजितश्च धनं प्रयच्छति, तथैव परमात्माग्निरुपासकानामान्तरान् बाह्याँश्च सपत्नान् निगृह्णाति, तत्कृते च सांसारिकीमाध्यात्मिकीञ्च संपदं वितरति ॥२॥५