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अ꣡त꣢श्चिदिन्द्र न꣣ उ꣡पा या꣢꣯हि श꣣त꣡वा꣢जया । इ꣣षा꣢ स꣣ह꣡स्र꣢वाजया ॥२१५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अतश्चिदिन्द्र न उपा याहि शतवाजया । इषा सहस्रवाजया ॥२१५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡तः꣢꣯ । चि꣣त् । इन्द्र । नः । उ꣡प꣢꣯ । आ । या꣣हि । शत꣡वा꣢जया । श꣣त꣢ । वा꣣जया । इषा꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢वाजया । स꣣ह꣡स्र꣢ । वा꣣जया । ॥२१५॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 215 | (कौथोम) 3 » 1 » 3 » 2 | (रानायाणीय) 2 » 11 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि इन्द्र किन वस्तुओं के साथ हमें प्राप्त हो।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (अतः चित्) इसीलिए, अर्थात् क्योंकि हम पूर्वमन्त्रोक्त रीति से बलादि की कामना करते हुए आपको अपने मैत्रीरसों से सींचते हैं, इस कारण हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर ! आप (शतवाजया) सैंकड़ों बलों से युक्त और (सहस्रवाजया) सहस्रों विज्ञानों से युक्त (इषा) अभीष्ट आनन्दरस की धारा के साथ (नः) हमें (उप आयाहि) प्राप्त हों ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) शत्रुविदारक धनपति राजन् ! आप (अतः चित्) इस अपनी राजधानी से (शतवाजया) बहुत बल और वेगवाली तथा (सहस्रवाजया) सहस्र संग्राम करने में समर्थ (इषा) सेना के साथ (नः) शत्रुओं से पीड़ित हम प्रजाजनों को (उप आयाहि) प्राप्त हों ॥ तृतीय—आचार्य के पक्ष में। हे (इन्द्र) अविद्या के विदारक और ज्ञान-धन से सम्पन्न आचार्यप्रवर ! (त्वम्) आप (अतः चित्) इस अपनी कुटी से (शतवाजया) प्रचुर बल से युक्त, (सहस्रवाजया) बहुत ज्ञान से युक्त (इषा) ब्रह्मचर्यादि व्रतपालन की प्रेरणा के साथ (नः) हम शिष्यों को (उप आयाहि) प्राप्त हों ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, और उपमानोपमेयभाव ध्वनित हो रहा है। ‘वाजया’ इस भिन्नार्थक शब्द की एक बार आवृत्ति होने से यमक अलङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे राजा बलवती, संग्रामकुशल सेना के साथ प्रजाजनों को और आचार्य बलविद्यायुक्त सदाचार-प्रेरणा के साथ शिष्यों को प्राप्त होता है, वैसे ही परमात्मा बलविज्ञानयुक्त आनन्दरस की धारा के साथ हमें प्राप्त हो ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथेन्द्रः कैर्वस्तुभिः सहास्मान् प्राप्नुयादित्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमात्मपरः। (अतः चित्) अत एव, यतः पूर्वमन्त्रोक्तरीत्या वाजं कामयमाना वयं त्वां मैत्रीरसैः सिञ्चामस्तस्मादित्यर्थः, हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर ! त्वम् (शतवाजया) शतबलयुक्तया। वाज इति बलनाम। निघं० २।९। (सहस्रवाजया) सहस्रविज्ञानयुक्तया२ (इषा) एष्टव्यया आनन्दरससंतत्या सह। इषु इच्छायाम्, तुदादिः, ततः क्विप्। तृतीयैकवचने रूपम्। (नः) अस्मान् (उप आयाहि) उपागच्छ ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे (इन्द्र) शत्रुविदारक धनाधिप राजन् ! त्वम् (अतः चित्) अस्मात् स्वकीयात् राजनगरात्। अत्र चिदिति पूरणः। (शतवाजया) बहुबलवेगयुक्तया, (सहस्रवाजया) सहस्रसंग्रामसमर्थया। वाज इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। (इषा) सेनया३ सह (नः) अस्मान् शत्रुभिः पीडितान् प्रजाजनान् (उप आयाहि) उपागच्छ ॥ अथ तृतीयः—आचार्यपरः। हे (इन्द्र)अविद्याविदारक ज्ञानैश्वर्यसम्पन्न आचार्यप्रवर ! त्वम् (अतः चित्) अस्मात् स्वकीयात् कुटीरात् (शतवाजया) प्रचुरबलयुक्तया, (सहस्रवाजया) बहुज्ञानयुक्तया (इषा) ब्रह्मचर्यादिव्रतपालनप्रेरणया सह (नः) अस्मान् त्वदीयशिष्यान् (उप आयाहि) उपागच्छ ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। उपमानोपमेयभावश्च ध्वन्यते। ‘वाजया’ इति भिन्नार्थकस्य सकृदावृत्तौ यमकालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा राजा बलवत्या संग्रामकुशलया सेनया सह प्रजाजनान्, आचार्यश्च बलविद्यायुक्तया सदाचारप्रेरणया सह शिष्यान् उपागच्छति तथैव परमात्मा बलविज्ञानवत्याऽऽनन्दरसधारया सहास्मानुपेयात् ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९२।१०। २. वाजम् विज्ञानम् इति ऋ० १।११७।१० भाष्ये द०। ३. इषः इष्यन्ते यास्ताः सेनाः, अत्र ‘कृतो बहुलम्’ इति वार्तिकेन कर्मणि क्विप्, इति ऋ० १।९।८ भाष्ये द०। इष गतौ, दिवादिः।