अ꣡सृ꣢ग्रमिन्द्र ते꣣ गि꣢रः꣣ प्र꣢ति꣣ त्वा꣡मुद꣢꣯हासत । स꣣जो꣡षा꣢ वृष꣣भं꣡ पति꣢꣯म् ॥२०५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत । सजोषा वृषभं पतिम् ॥२०५॥
अ꣡सृ꣢꣯ग्रम् । इ꣣न्द्र । ते । गि꣡रः꣢꣯ । प्र꣡ति꣢꣯ । त्वाम् । उत् । अ꣣हासत । सजो꣡षाः꣢ । स꣣ । जो꣡षाः꣢꣯ । वृ꣣षभ꣢म् । प꣡ति꣢꣯म् ॥२०५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा की स्तुति का विषय है।
हे (इन्द्र) पूजनीय जगदीश्वर ! मैं (ते) आपके लिए, आपकी स्तुति के लिए (गिरः) वेदवाणियों को (असृग्रम्) उच्चारित करता हूँ (सजोषाः) प्रीतिपूर्वक उच्चारण की गई वे वेदवाणियाँ (वृषभम्) सब अभीष्टों की वर्षा करनेवाले (पतिम्) पालनकर्ता (त्वां प्रति) आपको लक्ष्य करके (उद् अहासत) उठ रही हैं, उत्कण्ठा-पूर्वक आपको पाने का यत्न कर रही हैं ॥२॥ यहाँ प्रीतिमयी भार्या जैसे वर्षक पति को पाने के लिए उत्कण्ठापूर्वक जाती है, तो यह उपमा शब्द-शक्ति से ध्वनित हो रही है। उससे उपासक के प्रेम का अतिशय द्योतित होता है ॥२॥
यदि परमात्मा की प्रीतिपूर्वक वेदवाणियों से स्तुति की जाती है, तो वह अवश्य प्रसन्न होता है और स्तोता के लिए यथायोग्य अभीष्ट धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की वर्षा करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मनः स्तुतिविषयमाह।
हे (इन्द्र) महनीय जगदीश्वर ! अहम् (ते) तुभ्यम् (गिरः) वेदवाचः (असृग्रम्) सृजामि, प्रोच्चारयामि। असृजम् इति प्राप्ते बहुलं छन्दसि। अ० ७।१।८ अनेन सृज धातो रुडागमः। वर्णव्यत्ययेन जकारस्थाने गकारः, लडर्थे लङ् च। (सजोषाः२) जोषेण प्रीत्या सह वर्त्तमानाः, प्रीतिपूर्वकम् उच्चारितास्ताः वेदवाचः। जोषणं जोषः। जुषी प्रीतिसेवनयोः धातोः इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। अ० ३।१।१३५ इति कः। सह-जोषपदयोः समासे वोपसर्जनस्य। अ० ६।३।८२ इति सहस्य सादेशः। (वृषभम्) सर्वाभीष्टवर्षकम् (पतिम्) पालकम् (त्वां प्रति) त्वामुद्दिश्य (उद्-अहासत) उद्गच्छन्ति सोत्कण्ठं त्वां प्राप्तुं यतन्ते। अत्र ओहाङ् गतौ इत्यस्माल्लडर्थे लुङ्। अत्र प्रीतिमती भार्या यथा वर्षकं पतिं प्राप्तुं सोत्कं यातीति शब्दशक्त्या ध्वन्यते। तेन प्रेमातिशयो द्योत्यते ॥२॥३
यदि परमात्मा प्रीतिपूर्वकं वेदवाग्भिः स्तूयते तर्हि सोऽवश्यं प्रसीदति, स्तोत्रे यथायोग्यमभीष्टान् धर्मार्थकाममोक्षांश्च वर्षति ॥२॥