त꣣र꣡णिं꣢ वो꣣ ज꣡ना꣢नां त्र꣣दं꣡ वाज꣢꣯स्य꣣ गो꣡म꣢तः । स꣣मान꣢मु꣣ प्र꣡ श꣢ꣳ सिषम् ॥२०४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तरणिं वो जनानां त्रदं वाजस्य गोमतः । समानमु प्र शꣳ सिषम् ॥२०४॥
त꣣र꣡णि꣢म् । वः꣣ । ज꣡ना꣢꣯नाम् । त्र꣣द꣢म् । वा꣡ज꣢꣯स्य । गो꣡म꣢꣯तः । स꣣मा꣢नम् । स꣣म् । आन꣢म् । उ꣣ । प्र꣢ । शँ꣣सिषम् ॥२०४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, जीवात्मा, सूर्य और राजा की प्रशंसा की गयी है।
हे मनुष्यो ! (जनानां वः) आप जन्मधारियों का (तरणिम्) नौकारूप अर्थात् नाव के समान तारक, विपत्तिरूप नदियों से पार करनेवाले, (गोमतः) प्रशस्त गौओं से युक्त, प्रशस्त भूमियों से युक्त, प्रशस्त वाणियों से युक्त, प्रशस्त इन्द्रियों से युक्त, प्रशस्त किरणों से युक्त और प्रशस्त अन्तःप्रकाश से युक्त (वाजस्य) ऐश्वर्य के (त्रदम्) प्राप्त करानेवाले इन्द्र नामक परमात्मा, जीवात्मा, राजा और सूर्य की (समानम् उ) सप्राण होकर, सोत्साह (प्रशंसिषम्) मैं प्रशंसा करता हूँ ॥ पणि लोग इन्द्र की गौओं को चुराकर पर्वत की गुफा में छिपा देते हैं। इन्द्र सरमा को दूती बनाकर अङ्गिरस्, सोम और बृहस्पति की सहायता से गुफा तोड़कर उन्हें छुड़ॎता है, यह वृत्त वेद में बहुत बार वर्णित हुआ है। अध्यात्म-क्षेत्र में गौएँ अन्तःप्रकाश की किरणें या मन की सात्त्विक वृत्तियाँ हैं, इन्द्र परमात्मा अथवा जीवात्मा है, पणि उन गौओं को चुरानेवाली तामसिक मनोवृत्तियाँ हैं। अधिदैवत क्षेत्र में गौएँ किरणें हैं, इन्द्र सूर्य है, पणि मेघ अथवा अन्धकारपूर्ण रात्रियाँ हैं। राष्ट्रिय क्षेत्र में गौएँ गाय पशु या भूमि आदि सम्पत्तियाँ हैं, इन्द्र राष्ट्र का पालक राजा है, और पणि उन सम्पत्तियों का अपहरण करनेवाले लुटेरे शत्रु हैं। इन्द्र नामक परमात्मा, जीवात्मा, सूर्य और राजा उन-उन पणियों को पराजित करके उनकी गुफा को तोड़कर उन गौओं को पुनः प्राप्त करके सत्पात्रों को उनका दान करते हैं। इसी प्रसङ्ग से इस मन्त्र में तृद धातु दानार्थक हो गयी है ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। इन्द्र में तरणि (नौका) का आरोप होने से रूपक है ॥१॥
नौका के समान परमात्मा संसार-सागर से जनों का तारक, जीवात्मा कुमार्ग से इन्द्रियों का तारक, सूर्य अन्धकार या रोग से मनुष्यों का तारक, और राजा से विपत्तियों से प्रजाओं का तारक होता है। ये अपने-अपने क्षेत्र में यथायोग्य दिव्य प्रकाशरूप, दिव्य इन्द्रियरूप, किरणरूप, गायरूप, और भूमिरूप गौओं को शत्रु के अधिकार से वापस लौटानेवाले हैं। अतः इनकी प्रशंसा, गुण-वर्णन और सेवन सबको करना चाहिए॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्राद्ये मन्त्रे परमात्मानं, जीवं, सूर्यं, राजानं च प्रशंसति।
हे मनुष्याः ! (जनानां वः) जन्मधारिणां युष्माकम् (तरणिम्) नावम्, नौवत् तारकम्, विपत्सरितः पारयितारम्, (गोमतः) प्रशस्तधेनुयुक्तस्य, प्रशस्तभूमियुक्तस्य, प्रशस्तवाणीयुक्तस्य, प्रशस्तेन्द्रिययुक्तस्य, प्रशस्तकिरणयुक्तस्य, प्रशस्तान्तःप्रकाशयुक्तस्य वा (वाजस्य) ऐश्वर्यस्य (त्रदम्२) तर्दकं, प्रदातारम्, इन्द्रं परमात्मानं, राजानं, सूर्यं वा। तृदिर् हिंसानादरयोः। अत्र दानार्थः। तृणत्ति ददातीति त्रदः। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। अ० ३।१।१३५ इति कः प्रत्ययः। प्रत्ययस्वरेणान्तोदात्तत्वम्। अहम् (समानम् उ) सप्राणम्३ सोत्साहम् (प्रशंसिषम्) प्रशंसामि उद्बोधयामि वा। शंसु स्तुतौ, छन्दसि लुङ्लङ्लिटः अ० ३।४।६ इति कालसामान्ये लुङ्, बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि अ० ६।४।७५ इत्यडभावः। पणय इन्द्रस्य गा अपहृत्य पर्वतगुहायां प्रच्छादयन्ति, इन्द्रश्च सरमां दूतीं विधाय अङ्गिरसां सोमस्य, बृहस्पतेश्च साहाय्येन गुहामातृद्य ता विमोचयतीति वृत्तं वेदे बहुशो वर्णितम्४। अध्यात्मक्षेत्रे गावोऽन्तःप्रकाशस्य किरणाः मनसः सात्त्विकवृत्तयो वा, इन्द्रः परमात्मा जीवात्मा वा, पणयश्च, तासां गवामपहारिकास्तामस्यो मनोवृत्तयः। अधिदैवतक्षेत्रे गावः किरणाः, इन्द्रः सूर्यः, पणयश्च मेघाः तमःपूर्णा रात्रयो वा। राष्ट्रियक्षेत्रे गावः धेनुपृथिव्यादयः सम्पदः, इन्द्रो राष्ट्रपालको राजा, पणयश्च तासां सम्पदामपहर्त्तारो लुण्ठकाः शत्रवः सन्ति। इन्द्रः परमात्मा, जीवात्मा, सूर्यो, राजा च तांस्तान् पणीन् पराजित्य तद्गुहां विभिद्य ता गाः पुनः प्राप्य सत्पात्रेभ्यो ददाति। अस्मादेव प्रसङ्गादत्र तृद धातुर्दानार्थः सञ्जातः ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। इन्द्रे तरणित्वारोपाच्च रूपकम् ॥१॥
तरणिवत् परमात्मा संसारसागराज्जनानां तारकः, जीवात्मा कुमार्गादिन्द्रियाणां तारकः, सूर्योऽन्धकाराद् रोगाद् वा मनुष्याणां तारकः, राजा च विपद्भ्यः प्रजानां तारको भवति। एते स्वस्वक्षेत्रे यथायोग्यं दिव्यप्रकाशरूपाणां, दिव्येन्द्रियरूपाणां, किरणरूपाणां, धेनुरूपाणां, पृथिवीरूपाणां वा गवां शत्रुसकाशादाहर्त्तारो भवन्ति। अत एतेषां प्रशंसा, गुणवर्णनं सेवनं च सर्वैः कार्यम् ॥१॥