इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣ङ्ग꣢ म꣣ह꣢द्भ꣣य꣢म꣣भी꣡ षदप꣢꣯ चुच्यवत् । स꣢꣫ हि स्थि꣣रो꣡ विच꣢꣯र्षणिः ॥२००॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्रो अङ्ग महद्भयमभी षदप चुच्यवत् । स हि स्थिरो विचर्षणिः ॥२००॥
इ꣡न्द्रः꣢꣯ । अ꣣ङ्ग꣢ । म꣣ह꣢त् । भ꣣य꣢म् । अ꣣भि꣢ । सत् । अ꣡प꣢꣯ । चु꣣च्यवत् । सः꣢ । हि । स्थि꣣रः꣢ । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः ॥२००॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में इन्द्र से भय-मुक्त करने की प्रार्थना की गयी है।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (अङ्ग) हे भाई, (इन्द्रः) विघ्नविदारक, सिद्धिप्रदाता परमेश्वर (अभि सत्) अभिभूत करनेवाले (महत्) बड़े भारी (भयम्) विपत्तियों से उत्पन्न, काम-क्रोध आदि शत्रुओं के उत्पीड़न से उत्पन्न अथवा जन्म-मरण से उत्पन्न भय को (अप चुच्यवत्) पूर्णतः दूर कर दे, (हि) क्योंकि (सः) वह परमेश्वर (स्थिरः) भयों से उद्विग्न न होनेवाला, स्थिरमति, और (विचर्षणिः) भय-निवारण के उपायों का द्रष्टा और दर्शानेवाला है ॥ द्वितीय—सूर्य के पक्ष में। (अङ्ग) हे भाई, (इन्द्रः) अन्धकार का विदारक, प्रकाशप्रदाता सूर्य (अभि सत्) अभिभूत या उद्विग्न करनेवाले (महत्) बड़े (भयम्) रोगों से उत्पन्न, बाघ आदि हिंसक जन्तुओं से उत्पन्न, पृथिवी आदि ग्रह-उपग्रहों की टक्कर की आशंका से उत्पन्न इत्यादि प्रकार के भयों को (अपचुच्यवत्) दूर करता है, (हि) क्योंकि (सः) वह सूर्य (स्थिरः) आकर्षणशक्ति के द्वारा आकाश में स्थिर अर्थात् केवल अपनी धुरी पर ही घूमने के कारण स्थानान्तर गति से रहित, और (विचर्षणिः) प्रकाश के दान द्वारा सबको पदार्थों का दर्शन करानेवाला है ॥ तृतीय—राष्ट्र के पक्ष में। (अङ्ग) हे भाई, (इन्द्रः) परम धनी, शत्रुओं को विदीर्ण करनेवाला, प्रजाओं को सुख-सम्पदा देनेवाला राजा अथवा सेनापति (अभि सत्) राष्ट्र में व्याप्त होनेवाले (महत्) बड़े (भयम्) राष्ट्र के अन्दर के तथा बाहरी शत्रुओं से उत्पन्न किए गये भय को (अपचुच्यवत्) दूर कर दे, (हि) क्योंकि (सः) वह (स्थिरः) अपने पद पर अडिग, और (विचर्षणिः) गुप्तचर रूपी आँखों से अपने राष्ट्र में होनेवाले तथा शत्रु-राष्ट्र में होनेवाले सब घटनाचक्र का विशेष रूप से द्रष्टा है ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥
कभी काम, क्रोध आदि रिपुओं से उत्पन्न होनेवाला भय, कभी दुर्भिक्ष, नदियों की बाढ़, संक्रामक रोग आदि का भय, कभी मानवीय विपत्तियों का भय, कभी बाघ आदि हिंसक जन्तुओं का भय, कभी पड़ोसी शत्रु राष्ट्रों का भय, कभी चोरों, लुटेरों, ठगों, हत्यारों आदि का भय, कभी जन्म-मृत्यु के चक्र का भय मनुष्यों को व्याकुल किए रखता है। स्थिर सर्वद्रष्टा परमात्मा, स्थिर प्रकाशक सूर्य और स्थिर गुप्तचर-रूप आँखोंवाला राजा उस सब प्रकार के भय से मुक्त कर दे, जिससे सब लोग सब ओर से निर्भय होते हुए अभ्युदय और निःश्रेयस को प्राप्त कर सकें ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रं भयान्मुक्तिं प्रार्थयते।
प्रथमः—परमात्मपरः। (अङ्ग१) हे भद्र ! (इन्द्रः) विघ्नविदारकः सिद्धिप्रदाता परमेश्वरः (अभि सत्२) अभिभवत्, (महत्) विपुलम् (भयम्) विपज्जन्यं, कामक्रोधादिशत्रूत्पीडनजन्यं, जन्म-मरणजन्यं वा त्रासम् (अप चुच्यवत्) भृशम् अपच्यावयेत्। च्युङ् गतौ धातोर्यङ्लुगन्तस्य लेटि रूपम्। (हि) यस्मात् (सः) परमेश्वरः (स्थिरः) भयैरनुद्विग्नः स्थिरमतिः, (विचर्षणिः) भयनिवारणोपायानां द्रष्टा दर्शयिता च, वर्तते इति शेषः। विचर्षणिः इति पश्यतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३।११ ॥ अथ द्वितीयः—सूर्यपरः। (अङ्ग) हे भद्र ! (इन्द्रः) तमोविदारकः प्रकाशप्रदाता सूर्यः (अभि सत्) अभिभवत् उद्वेजनकारि, (महत्) विपुलम् (भयम्) रोगजन्यं, व्याघ्रादिहिंस्रजन्तुजन्यम्, आशङ्कितपृथिव्यादिग्रहोपग्रहसंघट्टजन्यम् एवमादिप्रकारकं भीतिसमूहम् (अपचुच्यवत्) अपच्यावयति, (हि) यस्मात् (सः) असौ सूर्यः (स्थिरः) आकर्षणद्वारा गगने स्थिरः, स्वधुरि एव भ्रमणशीलत्वात् स्थानान्तरगतिरहितः, (विचर्षणिः) प्रकाशप्रदानेन सर्वेषां दर्शयिता चास्ति ॥३ अथ तृतीयः—राष्ट्रपरः। (अङ्ग) हे भद्र ! (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्, शत्रुविदारकः, प्रजानां सुखसम्पत्प्रदाता राजा सेनापतिर्वा (अभि सत्) राष्ट्रेऽभिव्याप्यमानम्, (महत्) विस्तीर्णम् (भयम्) आन्तरिकबाह्यशत्रुकर्तृकं प्रतारणलुण्ठनबन्धनहिंसनविप्लवराजविद्रोहादिजन्यं त्रासम् (अप चुच्यवत्) दूरीकुर्यात्, (हि) यस्मात् (सः) असौ (स्थिरः) स्वपदे ध्रुवः, (विचर्षणिः) चारचक्षुर्भिः स्वराष्ट्रजातस्य शत्रुराष्ट्रजातस्य च निखिलस्यापि वृत्तस्य विशेषरूपेण द्रष्टा च विद्यते ॥७॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥
कदाचित् कामक्रोधादिरिपुजन्यं भयं, कदाचिद् दुर्भिक्षनद्यापूरसंक्रामकरोगादिजन्यं भयं, कदाचिन्मानवीयविपज्जन्यं भयं, कदाचिद् व्याघ्रादिहिंस्रजन्तुजन्यं भयं, कदाचित् प्रतिवेशिशत्रुराष्ट्रजन्यं भयं, कदाचित् स्तेनलुण्ठकवञ्चकघातकादिजन्यं भयं, कदाचिज्जन्ममरणचक्रजन्यं भयं मनुष्यानुद्वेजयति। स्थिरः सर्वद्रष्टा परमात्मा, स्थिरः प्रकाशकः सूर्यः, स्थिरश्चारचक्षू राजा च तस्मात् सर्वविधादपि भयाद् विमोचयेद्, येन सर्वे जनाः सर्वतो निर्भयाः सन्तोऽभ्युदयं निःश्रेयसं च प्राप्तुं शक्नुयुः ॥७॥