आ꣢꣫दित्प्र꣣त्न꣢स्य꣣ रे꣡त꣢सो꣣ ज्यो꣡तिः꣢ पश्यन्ति वास꣣र꣢म् । प꣣रो꣢꣫ यदि꣣ध्य꣡ते꣢ दि꣣वि꣢ ॥२०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आदित्प्रत्नस्य रेतसो ज्योतिः पश्यन्ति वासरम् । परो यदिध्यते दिवि ॥२०॥
आ꣢त् । इत् । प्र꣣त्न꣡स्य꣢ । रे꣡त꣢꣯सः । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । प꣣श्यन्ति । वासर꣢म् । प꣣रः꣢ । यत् । इ꣣ध्य꣡ते꣢ । दि꣣वि꣢ ॥२०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
योगी जन कब परमेश्वर की अलौकिक ज्योति का दर्शन करते हैं, इस विषय को कहते हैं।
(आत् इत्) उसके अनन्तर ही (प्रत्नस्य) सनातन, (रेतसः) वीर्यवान् परमसामर्थ्यशाली परमात्म-सूर्य की (वासरम्) राग, द्वेष, मोह आदि के अन्धकार को दूर करनेवाली, अथवा अणिमा आदि ऐश्वर्यों की निवासक, अथवा दिव्य दिन उत्पन्न कर देनेवाली (ज्योतिः) ज्योति को—योगदर्शनोक्त ज्योतिष्मती वृत्ति को, ज्ञानदीप्ति को या (विवेकख्याति) को, योगीजन (पश्यन्ति) देख पाते हैं, (यत्) जब, वह परमात्म-सूर्य (परः) परे (दिवि) आत्मारूप द्युलोक में (इध्यते) प्रदीप्त हो जाता है ॥१०॥ श्लेष से सूर्य के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥१०॥
जैसे प्रातःकाल उदित सूर्य जब मध्याह्न के आकाश में पहुँच जाता है, तभी लोग उसके अन्धकार-निवारक, देदीप्यमान, दिन को उत्पन्न करनेवाले सम्पूर्ण प्रभामण्डल को देख पाते हैं, वैसे ही जब योगियों से ध्यान किया गया परमात्मा उनके आत्म-लोक में जगमगाने लगता है, तभी वे उसके राग, द्वेष आदि के विनाशक, योगसिद्धियों के निवासक, जीवन्मुक्तिरूप दिन के जनक दिव्य प्रकाश का साक्षात्कार करने में समर्थ होते हैं ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव का वर्णन करते हुए उसे रिझाने का, उसके प्रति नमस्कार करने का, उसे स्तोत्र अर्पण करने का, मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति के साथ-साथ कर्म में भी प्रेरित करने का और परम ज्योति के दर्शन का वर्णन है, अतः इस दशति के अर्थ की पूर्व दशति के अर्थ के साथ संगति है ॥ प्रथम प्रपाठक, प्रथम अर्ध में द्वितीय दशति समाप्त ॥ प्रथम अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
योगिनः कदा परमेश्वरस्यालौकिकं ज्योतिः पश्यन्तीत्याह।
(आत् इत्) तदनन्तरमेव (प्रत्नस्य) सनातनस्य। प्रत्न इति पुराणनाम। निघं० ३।२७। (रेतसः२) रेतस्विनः वीर्यवतः परमसामर्थ्यशालिनः अग्नेः परमात्मसूर्यस्य। अत्र मत्वर्थीयस्य लोपः। (वासरम्) रागद्वेषमोहादितमोविवासनशीलं यद्वा अणिमाद्यैश्वर्यनिवासकम्। वासराणि वेसनानि विवासनानि गमनानीति वा इति निरुक्तम् ४।७। वस स्नेहच्छेदापहरणेषु इति धातोः, यद्वा णिजन्ताद् वस निवासे धातोः अर्तिकमिभ्रमिचमिदेविवासिभ्यश्चित्। उ० ३।१३२ इत्यौणादिकः अर प्रत्ययः। यद्वा वासरम् दिव्यदिवसजनकम्। वासरमित्यहर्नाम। निघं० १।९। (ज्योतिः) प्रकाशम् योगदर्शनोक्तां ज्योतिष्मतीं वृत्तिं, ज्ञानदीप्तिं, विवेकख्यातिं३ वा, योगिजनाः (पश्यन्ति) साक्षात्कुर्वन्ति, (यत्) यदा, असौ (परः) परस्तात् (दिवि) आत्मरूपे द्युलोके (इध्यते) प्रदीप्यते ॥१०॥४ श्लेषेण सूर्यपक्षे ऽपि योजनीयम् ॥१०॥
यथा प्रातरुदितः सूर्याग्निर्यदा मध्याह्नाकाशमारोहति तदैव जनास्तस्य तमोनिरासकं देदीप्यमानदिवसाधायकं सम्पूर्णप्रभामण्डलं पश्यन्ति, तथैव यदा योगिभिर्ध्यातः परमात्माग्निस्तेषामात्मलोके देदीप्यते तदैव ते तस्य रागद्वेषादिविनाशकं, योगसिद्धिनिवासकं, जीवन्मुक्तिप्राप्तिरूपदिवसजनकं दिव्यं ज्योतिर्द्रष्टुं पारयन्ति ॥१०॥ अत्र परमात्मनो गुणकर्मस्वभाववर्णनपूर्वकं तत्प्रसादनात्, तं प्रति नमस्करणात्, स्तोमार्पणात, परमेश्वरस्तुत्या सह कर्मण्यपि प्रेरणात्, परमज्योतिर्दर्शनवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति प्रथमे प्रपाठके प्रथमार्धे द्वितीया दशतिः ॥ इति प्रथमेऽध्याये द्वितीयः खण्डः ॥