आ꣡ या꣢हि सुषु꣣मा꣢꣫ हि त꣣ इ꣢न्द्र꣣ सो꣢मं꣣ पि꣡बा꣢ इ꣣म꣢म् । ए꣢꣫दं ब꣣र्हिः꣡ स꣢दो꣣ म꣡म꣢ ॥१९१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ याहि सुषुमा हि त इन्द्र सोमं पिबा इमम् । एदं बर्हिः सदो मम ॥१९१॥
आ꣢ । या꣣हि । सुषुम꣢ । हि । ते꣣ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । सो꣡म꣢꣯म् । पि꣡ब꣢꣯ । इ꣣म꣢म् । आ । इ꣣द꣢म् । ब꣣र्हिः꣢ । स꣣दः । म꣡म꣢꣯ ॥१९१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में इन्द्र को सोमपानार्थ बुलाया जा रहा है।
(आयाहि) आइए, (ते) आपके लिए, हमने (सुषुम हि) सोमरस को अभिषुत किया है, अर्थात् श्रद्धा, ज्ञान, कर्म, उपासना आदि के रस को निष्पादित किया है। हे (इन्द्र) परमात्मन्, राजन्, आचार्य, अतिथिप्रवर ! (इमम्) इस हमारे द्वारा समर्पित किए जाते हुए (सोमम्) श्रद्धा, ज्ञान, कर्म, उपासना, राजदेय कर, सोम ओषधि आदि के रस को (पिब) पीजिए। (इदम्) इस (मम) मेरे (बर्हिः) हृदयासन, राज्यासन अथवा कुशा के आसन पर (आ सदः) बैठिए ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥
सब मनुष्यों को चाहिए कि वे हृदय में परमात्मा को प्रकाशित कर उसकी पूजा करें और राजा, आचार्य, उपदेशक, संन्यासी आदि को बुलाकर यथायोग्य उनका सत्कार करें ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रः सोमरसं पातुमाहूयते।
(आयाहि) आगच्छ, (ते) त्वदर्थम्, वयम् (सुषुम हि) सोमम् अभिषुतवन्तः किल, श्रद्धाज्ञानकर्मोपासनादिरसं निष्पादितवन्तः इत्यर्थः। षुञ् अभिषवे, लिट्, सुषुविम इति प्राप्ते इडभावश्छान्दसः। हे (इन्द्र) परमात्मन्, राजन्, आचार्य, अतिथिप्रवर वा ! (इमम्) एतं समर्प्यमाणम् (सोमम्) श्रद्धाज्ञानकर्मोपासनाराजदेयकरसोमौषधिरसादिकम् (पिब) आस्वादय। संहितायां द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। (इदम्) एतत् (मम) मदीयम् (बर्हिः) हृदयासनं, राज्यासनं, दर्भासनं वा (आ सदः२) आसीद। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु, लोडर्थे लुङि बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि। अ० ६।४।७५ इत्यडागमो न ॥७॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥
सर्वैर्जनैः परमात्मानं हृदि प्रकाश्य स पूजनीयो, नृपत्याचार्योपदेशकसंन्यासिप्रभृतींश्चाहूय ते यथायोग्यं सत्करणीयाः ॥७॥