अ꣡व꣢सृष्टा꣣ प꣡रा꣢ पत꣣ श꣡र꣢व्ये꣣ ब्र꣡ह्म꣢सꣳशिते । ग꣢च्छा꣣मि꣢त्रा꣣न्प्र꣡ प꣢द्यस्व꣣ मा꣢꣫मीषां꣣ कं꣢ च꣣ नो꣡च्छि꣢षः ॥१८६३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसꣳशिते । गच्छामित्रान्प्र पद्यस्व मामीषां कं च नोच्छिषः ॥१८६३॥
अ꣡व꣢꣯ । सृ꣣ष्टा । प꣡रा꣢꣯ । प꣣त । श꣡र꣢꣯व्ये । ब्र꣡ह्म꣢꣯शꣳसिते । ब्र꣡ह्म꣢꣯ । श꣣ꣳसिते । ग꣡च्छ꣢꣯ । अ꣣मि꣡त्रा꣢न् । अ꣣ । मि꣡त्रा꣢꣯न् । प्र । प꣣द्यस्व । मा꣢ । अ꣣मी꣡षा꣢म् । कम् । च꣣ । न꣢ । उत् । शि꣣षः ॥१८६३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब अपनी सेना को उद्बोधन देते हैं।
हे (ब्रह्मसंशिते) धनुर्वेद के ज्ञाता सेनापति द्वारा तीक्ष्ण अर्थात् उत्साहित की हुई (शरव्ये) शस्त्रास्त्र चलाने में कुशल सेना ! (अवसृष्टा) प्रेरित की हुई तू (परापत) शत्रुओं पर टूट पड़। (गच्छ) जा, (अमित्रान्) शत्रुओं को (प्रपद्यस्व) प्राप्त कर। (अमीषाम्) इनके मध्य (कंचन) किसी को भी (न उच्छिषः) बचा न रहने दे ॥३॥
जैसे सेनापति से प्रेरित वीरों की सेना शत्रुओं को जीत लेती है, वैसे ही शरीर के अध्यक्ष जीवात्मा से प्रेरित सात्त्विक वीर भावों की सेना तामस दुर्भावों पर विजय पा लेती है। तामस भावों को निःशेष कर देना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि नाममात्र भी वे यदि बचे रहें, तो फिर बढ़ जाते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ स्वसेनामुद्बोधयति।
हे (ब्रह्मशंसिते२) ब्रह्मणा धनुर्वेदविदा सेनापतिना तीक्ष्णीकृते (शरव्ये) शरेषु शस्त्रास्त्रचालनेषु साध्वि सेने३ ! (अवसृष्टा) प्रेरिता त्वम् (परा पत) शत्रूणामुरि आक्राम। (गच्छ) याहि, (अमित्रान्) शत्रून् (प्र पद्यस्व) प्राप्नुहि, (अमीषाम्) एषां मध्ये (कं चन) कमपि (न उच्छिषः) न अवशिष्टं परित्यज ॥३॥४
यथा सेनापतिना प्रेरिता वीराणां सेना शत्रुविजयकरी जायते तथैव शरीराध्यक्षेण जीवात्मना प्रेषिता सात्त्विकानां वीरभावानां सेना तामसान् दुर्भावान् विजयते। तामसभावानां निःशेषकरणमेव श्रेयस्करं यतो नाममात्रमप्यवशिष्टास्ते पुनरपि वर्द्धन्ते ॥३॥