द्र꣣प्सः꣡ स꣢मु꣣द्र꣢म꣣भि꣡ यज्जिगा꣢꣯ति꣣ प꣢श्य꣣न्गृ꣡ध्र꣢स्य꣣ च꣡क्ष꣢सा꣣ वि꣡ध꣢र्मन् । भा꣣नुः꣢ शु꣣क्रे꣡ण꣢ शो꣣चि꣡षा꣢ चका꣣न꣢स्तृ꣣ती꣡ये꣢ चक्रे꣣ र꣡ज꣢सि प्रि꣣या꣡णि꣢ ॥१८४८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)द्रप्सः समुद्रमभि यज्जिगाति पश्यन्गृध्रस्य चक्षसा विधर्मन् । भानुः शुक्रेण शोचिषा चकानस्तृतीये चक्रे रजसि प्रियाणि ॥१८४८॥
द्र꣣प्सः꣢ । स꣣मुद्र꣢म् । स꣢म् । उद्र꣢म् । अ꣣भि꣢ । यत् । जि꣡गा꣢꣯ति । प꣡श्य꣢꣯न् । गृ꣡ध्र꣢꣯स्य । च꣡क्ष꣢꣯सा । वि꣡ध꣢꣯र्मन् । वि । ध꣣र्मन् । भानुः꣢ । शु꣣क्रे꣡ण꣢ । शो꣣चि꣡षा꣢ । च꣣कानः꣢ । तृ꣣ती꣡ये꣢ । च꣣क्रे । र꣡ज꣢꣯सि । प्रि꣣या꣡णि꣢ ॥१८४८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में मोक्षावस्था में जीवात्मा का परमात्मदर्शन वर्णित है।
(द्रप्सः) पानी की बूँद के सदृश अणु परिमाणवाला जीवात्मा (यत्) जब (समुद्रम् अभि) आनन्द के सागर परमात्मा की ओर (जिगाति) जाता है, तब (विधर्मन्) विशेष रूप से धारक मोक्षलोक में वह जीव उस परमात्मा को (गृध्रस्य चक्षसा) गिद्ध जैसी तीव्र दृष्टि से (पश्यन्) देखता है। (तृतीये रजसि) तृतीय धाम मोक्ष-लोक में (शुक्रेण) पवित्र (शोचिषा) तेज से (चकानः) प्रदीप्त होता हुआ (भानुः) परमात्मा-रूप सूर्य उस जीवात्मा के (प्रियाणि) आनन्द-वर्षा के प्रदान आदि अभीष्टों को (चक्रे) सिद्ध करता है ॥३॥ इस मन्त्र में परमात्मा में भानुत्त्व का आरोप होने से रूपक अलङ्कार है ॥३॥
मोक्ष के लिए प्रयत्न करता हुआ जीव रस सींचनेवाले तेजस्वी जगदीश्वर को प्राप्त करके रस-सिक्त और तेजस्वी हो जाता है ॥३॥ इस खण्ड में मनुष्य की आकाङ्क्षा, वेदवाणी, ब्रह्मानन्द-धारा, प्राण और जीवात्मा की मोक्षप्राप्ति का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ बीसवें अध्याय में सप्तम खण्ड समाप्त ॥ बीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ नवम प्रपाठक का द्वितीय अर्ध समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ मोक्षावस्थायां जीवात्मनः परमात्मदर्शनमुच्यते।
(द्रप्सः) जलबिन्दुवद् अणुपरिमाणो जीवात्मा (यत्) यदा (समुद्रम् अभि) आनन्दरसागारं परमात्मानं प्रति (जिगाति) गच्छति। [जिगातिः गतिकर्मा। निघं० २।१४।] तदा (विधर्मन्) विधर्मणि विशेषेण धारके मोक्षलोके स जीवस्तं परमात्मानम् (गृध्रस्य चक्षसा) गृध्रस्य इव तीव्रदृष्ट्या (पश्यन्) अवलोकयन् भवति। (तृतीये रजसि) तृतीये धामनि मोक्षलोके (शुक्रेण) पवित्रेण (शोचिषा) तेजसा (चकानः) दीप्यमानः [कनी दीप्तिकान्तिगतिषु, भ्वादिः।] (भानुः) परमात्मसूर्यः, तस्य जीवात्मनः (प्रियाणि) आनन्दवृष्टिप्रदानादीनि अभीप्सितानि (चक्रे) साधयति ॥३॥ अस्मिन् मन्त्रे परमात्मनि भानुत्वारोपाद् रूपकालङ्कारः ॥३॥
मोक्षाय प्रयतमानो जीवो रससेक्तारं तेजस्विनं जगदीश्वरं प्राप्य रससिक्तस्तेजोमयश्च जायते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे मनुष्याकाङ्क्षाया वेदवाचो ब्रह्मानन्दधारायाः प्राणस्य जीवात्मनो मोक्षप्राप्तेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥