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देवता: वायुः ऋषि: उलो वातायनः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

य꣢द꣣दो꣡ वा꣢त ते गृ꣣हे꣢३꣱ऽमृ꣢तं꣣ नि꣡हि꣢तं꣣ गु꣡हा꣢ । त꣡स्य꣢ नो देहि जी꣣व꣡से꣢ ॥१८४२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यददो वात ते गृहे३ऽमृतं निहितं गुहा । तस्य नो देहि जीवसे ॥१८४२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य꣢त् । अ꣣दः꣢ । वा꣣त । ते । गृहे꣢ । अ꣣मृ꣡त꣢म् । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯म् । नि꣡हि꣢꣯तम् । नि । हि꣣तम् । गु꣡हा꣢꣯ । त꣡स्य꣢꣯ । नः꣣ । धेहि । जीव꣡से꣢ ॥१८४२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1842 | (कौथोम) 9 » 2 » 11 » 3 | (रानायाणीय) 20 » 7 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे पुनः उसी विषय का कथन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वात) जीवात्मा-सहित प्राण ! (यत् ते गृहे) जो तुम्हारे शरीर रूप घर में (गुहा) हृदय-गुहा के अन्दर (अदः) यह (अमृतम्) अक्षय परमात्मा-रूप ज्योति (निहितम्) रखी हुई है, (जीवसे) जीवन के लिए (तस्य नः धेहि) उसकी हमें प्राप्ति कराओ ॥३॥

भावार्थभाषाः -

प्राणायाम द्वारा प्रकाश का आवरण क्षीण हो जाने पर, मन में धारणाओं की योग्यता उत्पन्न हो जाने पर प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि से हृदय में निहित परमात्म-ज्योति प्रकाशित हो जाती है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वात) जीवात्मसहचरित प्राण ! (यत् ते गृहे) यत् तव देहरूपे सदने (गुहा) हृदयगुहायाम्। [अत्र ‘सुपां सुलुक्’ अ० ७।१।३९ इति विभक्तेर्लुक्।] (अदः) एतत् (अमृतम्) अक्षयं परमात्मरूपं ज्योतिः (निहितम्) स्थितम् अस्ति, (जीवसे) जीवनाय (तस्य नः धेहि) तत् अस्मान् प्रापय ॥३॥

भावार्थभाषाः -

प्राणायामेन प्रकाशावरणक्षये मनसि धारणासु योग्यताप्राप्त्या प्रत्याहारधारणाध्यानसमाधिभिर्हृदयनिहितं परमात्मज्योतिः प्रकाशते ॥३॥