उ꣣त꣡ वा꣢त पि꣣ता꣡सि꣢ न उ꣣त꣢꣫ भ्रातो꣣त꣢ नः꣣ स꣡खा꣢ । स꣡ नो꣢ जी꣣वा꣡त꣢वे कृधि ॥१८४१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उत वात पितासि न उत भ्रातोत नः सखा । स नो जीवातवे कृधि ॥१८४१॥
उ꣣त꣢ । वा꣢त । पिता꣢ । अ꣣सि । नः । उत꣢ । भ्रा꣡ता꣢꣯ । उ꣣त꣢ । नः꣣ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । सः꣢ । नः꣣ । जीवा꣡त꣢वे । कृ꣣धि ॥१८४१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में प्राण के महत्त्व का वर्णन करते हुए उससे प्रार्थना की गयी है।
(उत) और, हे (वात) जीवात्मा-सहित प्राण ! तू (नः) हमारा (पिता) पिता के समान पालनकर्ता (असि) है, (उत) और (नः) हमारा (भ्राता) भाई के समान भरणपोषणकर्ता, (उत) तथा (सखा) सखा के समान सहायक है। (सः) वह तू (नः) हमें (जीवातवे) स्वस्थ जीवन के लिए (कृधि) समर्थ कर ॥२॥ यहाँ वात में पितृत्व, भ्रातृत्व और सखित्व के आरोप होने से रूपक अलङ्कार है ॥२॥
जीवात्मा-सहित प्राण के द्वारा ही प्राणियों के जन्म, वृद्धि, क्षतिपूर्ति, आरोग्य और दीर्घायुष्य आदि होते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ प्राणस्य महत्त्वं वर्णयन् तं प्रार्थयते।
(उत) अपि च, हे (वात) जीवात्मसहचरित प्राण ! त्वम् (नः) अस्माकम् (पिता) पितृवत् पालकः (असि) विद्यसे, (उत) अपि च (नः) अस्माकम् (भ्राता) भ्रातृवद् भर्ता, (उत) अपि च (नः) अस्माकम् (सखा) मित्रवत् सहायकः वर्तसे। (सः) असौ त्वम् (नः) अस्मान् (जीवातवे) स्वस्थजीवनाय (कृधि) समर्थान् कुरु ॥२॥ अत्र वाते पितृभ्रातृसखित्वारोपाद् रूपकालङ्कारः ॥२॥
जीवात्मसहचरितेन प्राणेनैव प्राणिनां जन्म वृद्धिः क्षतिपूर्तिरारोग्यं दीर्घायुष्यादिकं च जायते ॥२॥