वा꣢त꣣ आ꣡ वा꣢तु भेष꣣ज꣢ꣳ श꣣म्भु꣡ म꣢यो꣣भु꣡ नो꣢ हृ꣣दे꣢ । प्र꣢ न꣣ आ꣡यू꣢ꣳषि तारिषत् ॥१८४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वात आ वातु भेषजꣳ शम्भु मयोभु नो हृदे । प्र न आयूꣳषि तारिषत् ॥१८४॥
वा꣡तः꣢꣯ । आ । वा꣢तु । भेषज꣢म् । शं꣣म्भु꣢ । श꣣म् । भु꣢ । म꣣योभु꣢ । म꣣यः । भु꣢ । नः꣣ । हृदे꣢ । प्र । नः꣣ । आ꣡यूँ꣢꣯षि । ता꣣रिषत् ॥१८४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में ‘वात’ से भेषज आदि की आकांक्षा की गयी है।
(वातः) वायु को चलानेवाला, इन्द्र परमेश्वर, अथवा परमेश्वर द्वारा रचित वायु और प्राण (भेषजम्) औषध को (आ वातु) प्राप्त कराये, (यत्) जो (नः) हमारे (हृदे) हृदय के लिए (शम्भु) रोगों का शमन करनेवाला, और (मयोभु) सुखदायक हो। वह परमेश्वर, वायु और प्राण (नः) हमारे (आयूंषि) आयु के वर्षों को (प्रतारिषत्) बढ़ाये ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘वात, वातु’ में छेकानुप्रास है ॥१०॥
ईश्वरप्रणिधानपूर्वक प्राणायाम करने से चित की शुद्धि, हृदय का बल, शरीर का आरोग्य और दीर्घायुष्य प्राप्त होते हैं। इस दशति में इन्द्र परमेश्वर की सहायता से अविद्या, अधर्म के अन्धकार से पूर्ण रात्रि के निवारण का, दिव्य उषा के प्रादुर्भाव का, इन्द्र द्वारा वृत्र के संहार का, परमात्मा, वायु और प्राण से औषध-प्राप्ति का और यथायोग्य राजा एवं आचार्य के भी योगदान का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ द्वितीय प्रपाठक में द्वितीय—अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में सप्तम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ वाताद् भेषजादिकमाकाङ्क्षते।
(वातः) वातयति वायुं प्रेरयति यः स वातः इन्द्रः परमेश्वरः, यद्वा वातः इन्द्रेण परमेश्वरेण रचितः वायुः प्राणो वा (भेषजम्) औषधम् (आ वातु) आ गमयतु, यत् (नः) अस्माकम् (हृदे) हृदयाय (शम्भु२) रोगशामकम्। शं रोगाणां शमनं भवत्यस्मादिति शम्भु। (मयोभु) सुखदायकं च, भवेदिति शेषः। मयः इति सुखनाम। निघं० ३।६। मयः सुखं भवत्यस्मादिति मयोभु। स वातः परमेश्वरः वायुः प्राणश्च (नः) अस्माकम् (आयूंषि) आयुषो वर्षाणि (प्रतारिषत्) प्रवर्द्धयेत्। प्र पूर्वः तॄ प्लवनसंतरणयोः धातुर्वर्द्धनार्थः। लेटि, तिपि, तिप इकारस्य लोपे, सिबागमे, अडागमे, सिपश्च णिद्वत्त्वे, वृद्धौ रूपम् ॥१०॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। वात, वातु इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥१०॥
ईश्वरप्रणिधानपूर्वकं प्राणायामेन चित्तशुद्धिर्हृद्बलं, शरीरारोग्यं, दीर्घायुष्यं च प्राप्यते ॥१०॥ अत्रेन्द्राख्यस्य परमेश्वरस्य साहाय्येनाऽविद्याऽधर्मान्धकारपूर्णाया निशाया अपगमस्य, दिव्योषसः प्रादुर्भावस्य, इन्द्रद्वारा वृत्रसंहारस्य, परमात्मवायुप्राणाद्याद् भेषजप्राप्तेर्वर्णनाद्, यथायोग्यं च नृपतेराचार्यस्य चापि योगदानवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम्। इति द्वितीये प्रपाठके द्वितीयार्धे चतुर्थी दशतिः। इति द्वितीयाध्याये सप्तमः खण्डः ॥