त꣢स्मा꣣ अ꣡रं꣢ गमाम वो꣣ य꣢स्य꣣ क्ष꣡या꣢य꣣ जि꣡न्व꣢थ । आ꣡पो꣢ ज꣣न꣡य꣢था च नः ॥१८३९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जनयथा च नः ॥१८३९॥
त꣡स्मै꣢꣯ । अ꣡र꣢꣯म् । ग꣣माम । वः । य꣡स्य꣢꣯ । क्ष꣡या꣢꣯य । जि꣡न्व꣢꣯थ । आ꣡पः꣢꣯ । ज꣣न꣡य꣢थ । च꣣ । नः ॥१८३९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर ब्रह्मानन्द की धाराओं का ही विषय है।
हे (आपः) ब्रह्मानन्द की धाराओ ! (तस्मै) उस प्रयोजन के लिए, हम (वः) तुम्हें (अरम्) पर्याप्त रूप से (गमाम) प्राप्त कर लें, (यस्य) जिस अभ्युदय और निःश्रेयस रूप प्रयोजन के (क्षयाय) हमारे अन्दर निवास कराने के लिए, तुम (जिन्वथ) गति करती हो। तुम (नः) हमें (जनयथ च) नवजीवन से अनुप्राणित भी कर दो ॥३॥
परमात्मा की उपासना से जो दिव्य आनन्द प्राप्त होता है,उससे मनुष्य अपने जीवन में परम उत्कर्ष और मोक्ष भी पा सकता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि ब्रह्मानन्दधाराविषय एवोच्यते।
हे (आपः) ब्रह्मानन्दधाराः (तस्मै) प्रयोजनाय, वयम् (वः) युष्मान् (अरम्) पर्याप्तम् (गमाम) प्राप्नुयाम। [गच्छतेर्विध्यर्थे लुङि ‘बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि’ अ० ६।४।७५ इत्यडागमाभावः।] (यस्य) अभ्युदयनिःश्रेयसरूपस्य प्रयोजनस्य (क्षयाय) अस्मासु निवासाय। [क्षि निवासगत्योः ‘क्षयो निवासे’ अ० ६।१।२०१ इत्याद्युदात्तः।] (यूयम् जिन्वथ) गतिं कुरुथ। [जिन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४।] यूयम् (नः) अस्मान् (जनयथ च) नवजीवनेनानुप्राणितान् कुरुथ च ॥३॥२
परमात्मोपासनेन यो दिव्यानन्दः प्राप्यते तेन मनुष्यः स्वजीवने परमाभ्युदयं निःश्रेयसं चापि प्राप्तुं प्रभवति ॥३॥