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यो꣡ वः꣢ शि꣣व꣡त꣢मो꣣ र꣢स꣣स्त꣡स्य꣢ भाजयते꣣ह꣡ नः꣢ । उ꣣शती꣡रि꣢व मा꣣त꣡रः꣢ ॥१८३८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ॥१८३८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः । वः꣣ । शिव꣡त꣢मः । र꣡सः꣢꣯ । त꣡स्य꣢꣯ । भा꣣जयत । इह꣡ । नः꣣ । उशतीः꣢ । इ꣣व । मात꣡रः꣢ ॥१८३८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1838 | (कौथोम) 9 » 2 » 10 » 2 | (रानायाणीय) 20 » 7 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्द की धाराओं के रस की प्रार्थना है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे ब्रह्मानन्द की धाराओ ! (यः) जो (वः) तुम्हारा (शिवतमः) अतिशय शान्तिदायक (रसः) रस है, (तस्य) उसका (इह) इस जीवन में (नः) हमें (भाजयत) भागी बनाओ, पान कराओ, (उशतीः) सन्तान से प्रेम करती हुई (मातरः इव) माताएँ जैसे अपने स्तनों का दूध अपनी सन्तान को पिलाती हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

माता के स्तन के दूध में जो माधुर्य है, वही ब्रह्म के पास से प्राप्त आनन्द-धाराओं में है, ऐसा विद्वान् उपासक लोग अनुभव करते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ ब्रह्मानन्दधाराणां रसं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे आपः ब्रह्मानन्दधाराः ! (यः वः) युष्माकम् (शिवतमः) अतिशयेन शान्तिदायकः (रसः) सारतत्त्वम् अस्ति (तस्य इह) जीवने (नः) अस्मान् (भाजयत) भागिनः कुरुत। कथमिव ? (उशतीः) उशत्यः कामयमानाः स्नेहं कुर्वाणाः। [वश कान्तौ, शतरि स्त्रियां पूर्वसवर्णदीर्घः।] (मातरः इव) जनन्यो यथा स्वकीयं स्तनरसं सन्तानान् पाययन्ति तद्वत् ॥२॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मातुः स्तन्ये यन्माधुर्यं तदेव ब्रह्मणः सकाशात् प्राप्तास्वानन्दधारास्विति विचक्षणा अनुभवन्ति ॥२॥