आ꣢पो꣣ हि꣡ ष्ठा म꣢꣯यो꣣भु꣢व꣣स्ता꣡ न꣢ ऊ꣣र्जे꣡ द꣢धातन । म꣣हे꣡ रणा꣢꣯य꣣ च꣡क्ष꣢से ॥१८३७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे ॥१८३७॥
आ꣡पः꣢꣯ । हि । स्थ । म꣣योभु꣡वः꣢ । म꣣यः । भु꣡वः꣢꣯ । ताः । नः꣣ । ऊर्जे꣢ । द꣣धातन । दधात । न । महे꣢ । र꣡णा꣢꣯य । च꣡क्ष꣢꣯से ॥१८३७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में ब्रह्मानन्द की धाराओं का विषय है।
हे (आपः) ब्रह्मानन्द-रस की धाराओ ! तुम (हि) निश्चय ही (मयोभुवः) शान्ति देनेवाली (स्थ) हो। (ताः) वे तुम (नः) हमें (ऊर्जे) ब्रह्मबल के लिए, (महे) महत्ता के लिए (रणाय) देवासुरसङ्ग्राम के लिए और (चक्षसे) अन्तःप्रकाश के लिए (दधातन) धारण करो ॥१॥
उपासक जब परमात्मा के पास से आनन्द की धाराओं को प्राप्त करता है, तब ब्रह्मबल, आत्मोत्कर्ष और विजय आदि स्वयं ही आ जाते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र ब्रह्मानन्दधाराविषयमाह।
हे (आपः) ब्रह्मानन्दरसधाराः ! यूयम् (हि) निश्चयेन (मयोभुवः) शान्तेः भावयित्र्यः (स्थ) भवथ। (ताः) ताः यूयम् (नः) अस्मान् (ऊर्जे) ब्रह्मबलाय, (महे) महत्त्वाय, (रणाय) देवासुरसंग्रामाय, (चक्षसे) अन्तःप्रकाशाय च (दधातन) धत्त। [दधातेः ‘तप्तनप्तनथनाश्च’ अ० ७।१।४५ इति तस्य तनबादेशः। छन्दसि बाहुलकादत्र ‘श्नाभ्यस्तयोरातः’ अ० ६।४।११२ इति न प्रवर्तते] ॥१॥२ यास्काचार्यो मन्त्रमिममेवं व्याख्यातवान्—[आपो हि स्थ सुखभुवस्तानोऽन्नाय धत्त, महते च नो रणाय रमणीयाय दर्शनाय (निरु० ९।२५) इति]।
उपासको यदा परमात्मसकाशादानन्दधाराः प्राप्नोति तदा ब्रह्मबलमात्मोत्कर्षो विजयादयश्च स्वयमेव समागच्छन्ति ॥१॥