धे꣣नु꣡ष्ट꣢ इन्द्र सू꣣नृ꣢ता꣣ य꣡ज꣢मानाय सुन्व꣣ते꣢ । गा꣡मश्वं꣢꣯ पि꣣प्यु꣡षी꣢ दुहे ॥१८३६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)धेनुष्ट इन्द्र सूनृता यजमानाय सुन्वते । गामश्वं पिप्युषी दुहे ॥१८३६॥
धे꣣नुः꣢ । ते꣣ । इन्द्र । सूनृ꣡ता꣢ । सु꣣ । नृ꣡ता꣢꣯ । य꣡ज꣢꣯मानाय । सु꣣न्वते꣢ । गाम् । अ꣡श्व꣢꣯म् । पि꣣प्यु꣡षी꣢ । दु꣣हे ॥१८३६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में वेदवाणी-रूप धेनु का विषय है।
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! ते आपकी (सूनृता) सत्य और मधुर, (धेनुः) तृप्ति देनेवाली वेदवाणी (सुन्वते) भक्ति-रस प्रवाहित करनेवाले (यजमानाय) उपासक के लिए (पिप्युषी) बढ़ानेवाली होती हुई (गाम्) अन्तःप्रकाश को और (अश्वम्) प्राण-बल को (दुहे) दुहती है ॥३॥
वेद पढ़ने से मनुष्यों को परमेश्वरोपासना में प्रवृति होती है और उससे अन्तःप्रकाश, प्राणबल और पुरुषार्थ के लिए प्रेरणा मिलती है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ वेदवाग्रूपधेनुविषयमाह।
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (ते) तव (सूनृता) सत्या मधुरा च (धेनुः) प्रीणयित्री वेदवाक् (सुन्वते) भक्तिरसं प्रवाहयते (यजमानाय) उपासकाय (पिप्युषी) वर्द्धयित्री सती (गाम्) अन्तःप्रकाशम् (अश्वम्) प्राणबलं च (दुहे) दुग्धे। [लोपस्त आत्मनेपदेषु। अ० ७।१।४१ इति तलोपः] ॥३॥
वेदाध्ययनेन जनानां परमेश्वरोपासनायां प्रवृत्तिर्जायते, तया चान्तःप्रकाशः प्राणबलं पुरुषार्थप्रेरणा च प्राप्यते ॥३॥