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य꣡दि꣢न्द्रा꣣हं꣢꣫ यथा꣣ त्वमीशी꣢꣯य꣣ व꣢स्व꣣ ए꣢क꣢ इ꣢त् । स्तो꣣ता꣢ मे꣣ गो꣡स꣢खा स्यात् ॥१८३४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यदिन्द्राहं यथा त्वमीशीय वस्व एक इत् । स्तोता मे गोसखा स्यात् ॥१८३४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य꣢त् । इ꣣न्द्र । अ꣣ह꣢म् । य꣡था꣢꣯ । त्वम् । ई꣡शी꣢꣯य । व꣡स्वः꣢꣯ । ए꣡कः꣢꣯ । इत् । स्तो꣣ता꣢ । मे꣣ । गो꣡स꣢꣯खा । गो । स꣣खा । स्यात् ॥१८३४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1834 | (कौथोम) 9 » 2 » 9 » 1 | (रानायाणीय) 20 » 7 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १२२ क्रमाङ्क पर हो चुकी है। इसमें धनपति होकर मैं क्या करूँ, इसका वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) जगदीश्वर आचार्य वा राजन् ! (यत्) यदि (यथा त्वम्) जैसे आप हो वैसे (अहम्) मैं (वस्वः) दिव्य ऐश्वर्य का, विद्या-धन का वा भौतिक धन का (एकः इत्) अद्वितीय (ईशीय) स्वामी हो जाऊँ तो (मे) मेरा (स्तोता) प्रशंसक (गोसखा) दिव्य प्रकाशों का, समस्त वाङ्मय का वा धेनुओं का सखा (स्यात्) हो जाए ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यदि मैं जगदीश के समान सत्य, अहिंसा, योगसिद्धि आदि दिव्य धनों का स्वामी हो जाऊँ तो सत्पात्रों को दिव्य धन बाटूँ, यदि मैं आचार्य के समान विद्या-धनों का स्वामी हो जाऊँ तो शिष्यों को विविध विद्याओं का अध्यापन करूँ, यदि मैं राजा के समान चाँदी, सोना, गाय आदि धनों का स्वामी हो जाऊँ तो निर्धनों को सोना, गाय आदि धन वितीर्ण करूँ ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १२२ क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। धनपतिर्भूत्वाऽहं कि कुर्यामित्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) जगदीश्वर आचार्य राजन् वा ! (यत्) यदि (यथा त्वम्) यथा त्वमसि तथैव (अहं वस्वः) विद्याधनस्य भौतिकधनस्य वा (एकः इत्) अद्वितीयः एव (ईशीय) ईश्वरो भवेयम्, तर्हि (मे) मम (स्तोता) प्रशंसकः (गोसखा) गवाम् दिव्यप्रकाशानाम् निखिलवाङ्मयानां धेनूनां वा सखा स्वामी (स्यात्) भवेत् ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यद्यहं जगदीशवद् दिव्यधनानां सत्याहिंसायोगसिद्ध्यादीनां स्वामी भवेयं तर्हि सत्पात्रेभ्यो दिव्यधनानि दद्याम्, यद्यहमाचार्यवद् विद्याधनानां स्वामी भवेयं तर्हि शिष्येभ्यो विविधा विद्या अध्यापयेयम्, यद्यहं भूपतिरिव रजतसुवर्णगवादिधनाधीशो भवेयं तर्हि निर्धनेभ्यो रजतसुवर्णगवादिधनानि वितरेयम् ॥१॥