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देवता: अग्निः ऋषि: अवत्सारः काश्यपः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

स꣣ह꣢ र꣣य्या꣡ नि व꣢꣯र्त꣣स्वा꣢ग्ने꣣ पि꣡न्व꣢स्व꣣ धा꣡र꣢या । वि꣣श्व꣡प्स्न्या꣢ वि꣣श्व꣢त꣣स्प꣡रि꣢ ॥१८३३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

सह रय्या नि वर्तस्वाग्ने पिन्वस्व धारया । विश्वप्स्न्या विश्वतस्परि ॥१८३३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स꣣ह꣢ । र꣣य्या꣢ । नि । व꣣र्तस्व । अ꣡ग्ने꣢꣯ । पि꣡न्व꣢꣯स्व । धा꣡र꣢꣯या । वि꣣श्व꣡प्स्न्या꣢ । वि꣣श्व꣢ । प्स्न्या꣢ । विश्व꣡तः꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯ ॥१८३३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1833 | (कौथोम) 9 » 2 » 8 » 3 | (रानायाणीय) 20 » 6 » 7 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर परमात्मा से प्रार्थना है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) जगन्नायक, सर्वप्रकाशक, रसागार परमात्मन् ! आप (रय्या सह) दिव्य ऐश्वर्य के साथ (निवर्तस्व) हमें निरन्तर प्राप्त होते रहो। (विश्वप्स्न्या) सब योगियों से आस्वाद ली जानेवाली (धारया) आनन्द-धारा से, हमें (विश्वतः) सब ओर से (परिपिन्वस्व) सींचते रहो ॥३॥

भावार्थभाषाः -

आनन्द-रस का पुञ्ज परमेश्वर अपने उपासकों को आनन्द-धारा से सींचता और दिव्य ऐश्वर्यों से सनाथ करता है ॥३॥ इस खण्ड में जगदीश्वर, जागरण, नमस्कार, सामगान और ज्योति के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ बीसवें अध्याय में छठा खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अत पुनरपि परमात्मा प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) जगन्नायक सर्वप्रकाशक रसागार परमात्मन् ! त्वम् (रय्या सह) दिव्येन ऐश्वर्येण सह (निवर्तस्व) अस्मान् निरन्तरं प्राप्नुहि। (विश्वप्स्न्या) विश्वैः सर्वैर्योगिभिः प्सायते आस्वाद्यते या सा विश्वप्स्ना तया [प्सा भक्षणे, अदादिः।] (धारया) आनन्दप्रवाहसन्तत्या, अस्मान् (विश्वतः) सर्वतः (परिपिन्वस्व) परिषिञ्च। [पिवि सेवने सेचने च, भ्वादिः। व्यत्ययेनात्मनेपदम्] ॥३॥२

भावार्थभाषाः -

आनन्दरसपुञ्जः परमेश्वरः स्वोपासकानानन्दधारया सिञ्चति, दिव्यैरैश्वर्यैश्च सनाथान् करोति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जगदीश्वरस्य जागरणस्य नमस्कारस्य सामगानस्य ज्योतिषश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥