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देवता: अग्निः ऋषि: अवत्सारः काश्यपः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

पु꣡न꣢रू꣣र्जा꣡ नि व꣢꣯र्तस्व꣣ पु꣡न꣢रग्न इ꣣षा꣡यु꣢षा । पु꣡न꣢र्नः पा꣣ह्य꣡ꣳह꣢सः ॥१८३२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पुनरूर्जा नि वर्तस्व पुनरग्न इषायुषा । पुनर्नः पाह्यꣳहसः ॥१८३२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु꣡नः꣢꣯ । ऊ꣣र्जा꣢ । नि । व꣣र्तस्व । पु꣡नः꣢꣯ । अ꣣ग्ने । इषा꣢ । आ꣡यु꣢꣯षा । पु꣡नः꣢꣯ । नः꣣ । पाहि । अ꣡ꣳह꣢꣯सः ॥१८३२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1832 | (कौथोम) 9 » 2 » 8 » 2 | (रानायाणीय) 20 » 6 » 7 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) प्रकाशकों के प्रकाशक, जगन्नायक, सर्वान्तर्यामी परमेश ! आप (पुनः) फिर-फिर (ऊर्जा) बल और प्राणशक्ति के साथ, (पुनः) फिर-फिर (इषा) अभीष्ट आनन्द के साथ (आयुषा) और दीर्घायुष्य के साथ (नि वर्तस्व) हमें निरन्तर प्राप्त होते रहो। (पुनः) फिर-फिर (नः) हमें (अंहसः) पाप से (पाहि) बचाते रहो ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य निर्बल होने से पुनः पुनः निरुत्साह, दैन्य, दुःख, अज्ञान, पाप आदियों से लिप्त होता रहता है। वह परमात्मा की उपासना से पुनः पुनः बल, प्राण, सुख, सद्विद्या, धर्म, दीर्घायुष्य आदि प्राप्त कर सकता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) प्रकाशकानां प्रकाशक जगन्नायक सर्वान्तर्यामिन् परमेश ! त्वम् (पुनः) भूयो भूयः (ऊर्जा) बलेन प्राणशक्त्या च, (पुनः) भूयो भूयश्च (इषा) अभीष्टेन आनन्देन (आयुषा) दीर्घायुष्येण च (नि वर्तस्व) निरन्तरम् अस्मान् प्राप्नुहि (पुनः) भूयोभूयः (नः) अस्मान् (अंहसः) पापात् (पाहि) त्रायस्व ॥२॥२

भावार्थभाषाः -

मनुष्यो निर्बलत्वात्पुनःपुनर्निरुत्साहदैन्यदुःखाज्ञानपापादि-भिर्लिप्यते। स परमात्मोपासनया पुनः पुनर्बलप्राणसुखसद्विद्याधर्मदीर्घायुष्यादिकं प्राप्तुं शक्नोति ॥२॥