गा꣣यत्रं꣡ त्रैष्टु꣢꣯भं꣣ ज꣢ग꣣द्वि꣡श्वा꣢ रू꣣पा꣢णि꣣ स꣡म्भृ꣢ता । दे꣣वा꣡ ओका꣢꣯ꣳसि चक्रि꣣रे꣢ ॥१८३०
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)गायत्रं त्रैष्टुभं जगद्विश्वा रूपाणि सम्भृता । देवा ओकाꣳसि चक्रिरे ॥१८३०
गा꣣यत्र꣢म् । त्रै꣡ष्टु꣢꣯भम् । त्रै । स्तु꣣भम् । ज꣡ग꣢꣯त् । वि꣡श्वा꣢꣯ । रू꣣पा꣡णि꣢ । स꣡म्भृ꣢꣯ता । सम् । भृ꣣ता । देवाः꣢ । ओ꣡का꣢꣯ꣳसि । च꣣क्रिरे꣢ ॥१८३०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में सामगान का महत्त्व वर्णित है।
(गायत्रम्) गायत्री छन्दवाला साम, (त्रैष्टुभम्) त्रिष्टुप् छन्दवाला साम, (जगत्) और जगती छन्दवाला साम, इनमें (विश्वा रूपाणि) दूसरे सामों के भी सब रूप (सम्भृता) समाविष्ट हैं। जो इन सामों को गाता है, उसमें (देवाः) दिव्य गुण (ओकांसि) घर (चक्रिरे) कर लेते हैं ॥३॥
आठ अक्षरों का गायत्र पाद, ग्यारह अक्षरों का त्रैष्टुभ पाद और बारह अक्षरों का जागत पाद होता है। प्रायः सभी वैदिक छन्द इन्हीं पादों से बनते हैं। इनमें से किसी एक दो या तीनों पादों से गुँथी हुई ऋचाओं पर सामगान करने से गायक के अन्तरात्मा में अनेक दिव्यगुण समाविष्ट हो जाते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सामगानस्य महत्त्वमाह।
(गायत्रं) गायत्रीछन्दस्कं साम, (त्रैष्टुभम्) त्रिष्टुप्छन्दस्कं साम, (जगत्) जगतीछन्दस्कं साम च, एषु (विश्वा रूपाणि) इतरेषामपि साम्नां सर्वाणि रूपाणि (सम्भृता) सम्भृतानि समाविष्टानि सन्ति। य एतानि सामानि गायति तस्मिन् (देवाः) दिव्यगुणाः (ओकांसि) गृहाणि (चक्रिरे) कुर्वन्ति ॥३॥
अष्टाक्षरः पादो गायत्रः पादः, एकादशाक्षरः पादस्त्रैष्टुभः पादः, द्वादशाक्षरः पादो जागतः पादः। प्रायः सर्वाणि वैदिकच्छन्दांस्येतैरेव पादैः स्थितिं लभन्ते। एतेषु केनचिदेकेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा पादैर्ग्रथितास्वृक्षु सामगानेन गातुरन्तरात्ममनेके दिव्यगुणाः समाविशन्ति ॥३॥