अ꣣य꣡मु꣢ ते꣣ स꣡म꣢तसि क꣣पो꣡त꣢ इव गर्भ꣣धि꣢म् । व꣢च꣣स्त꣡च्चि꣢न्न ओहसे ॥१८३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अयमु ते समतसि कपोत इव गर्भधिम् । वचस्तच्चिन्न ओहसे ॥१८३॥
अ꣣य꣢म् । उ꣣ । ते । स꣢म् । अ꣣तसि । कपो꣡तः꣢ । इ꣣व । गर्भधि꣣म् । ग꣣र्भ । धि꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । तत् । चि꣣त् । नः । ओहसे ॥१८३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा के साथ अपना स्नेह-सम्बन्ध सूचित किया गया है।
हे इन्द्र परमात्मन् ! (अयम्) यह उपासक (उ) सचमुच (तव) तेरा ही है, जिसके पास तू (समतसि) पहुँचता है, (कपोतः) कबूतर (इव) जैसे (गर्भधिम्) अण्डों से नये निकले हुए बच्चों के आवास-स्थान घोंसले में पहुँचता है। (तत् चित्) इसी कारण, (नः) हमारे (वचः) स्नेहमय स्तुति-वचन को, तू (ओहसे) स्वीकार करता है ॥९॥ यास्काचार्य ने इस मन्त्र के प्रथम पाद को ‘उ’ के पदपूरक होने के उदाहरणस्वरूप उद्धृत किया है। निरु० १।१०। इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥९॥
जैसे कबूतर घोंसले में स्थित शिशुओं के पालन के लिए घोंसले में जाता है, वैसे ही परमेश्वर अपने शिशु उपासकों के पालन के लिए उनके पास जाता है। और, जैसे कबूतर अपने शिशुओं के शब्द को उत्कण्ठापूर्वक सुनता है, वैसे ही परमेश्वर स्तोताओं के स्तुतिवचन को प्रेमपूर्वक सुनता है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मना स्वकीयं स्नेहसम्बन्धं सूचयति।
हे इन्द्र परमात्मन् ! (अयम्) एष उपासकः (उ) किल (तव) तवैव वर्तते, यं त्वम् (समतसि) सं प्राप्नोषि। अत सम् पूर्वः अत सातत्यगमने भ्वादिः। (कपोतः) पारावतः (इव) यथा (गर्भधिम्२) गर्भाः अण्डेभ्योऽचिरप्रसूताः शिशवः धीयन्ते यत्र स गर्भधिः नीडः तम् प्राप्नोति। गर्भोपपदात् धा धातोः कर्मण्यधिकरणे च।’ अ० ३।३।३९ इति किः प्रत्ययः. (तत् चित्) तस्मादेव कारणात् (नः) अस्माकम् (वचः) स्नेहमयं स्तुतिवचनम्, त्वम् (ओहसे३) वहसि स्वीकरोषि। वह प्रापणे धातोश्छान्दसे सम्प्रसारणे लघूपधगुणः ॥९॥४ यास्काचार्यः उकारस्य पदपूरकत्वेऽस्य मन्त्रस्य प्रथमं पादमुद्धरति—अ॒यमु॒॑ ते॒ सम॑तसि (ऋ० १।३०।४), अयं ते समतसि। निरु० १।१०। इति। अत्रोपमालङ्कारः ॥९॥
यथा कपोतो नीडस्थशिशूनां पालनाय नीडं गच्छति, तथैव परमेश्वरः स्वशिशूनामुपासकानां पालनाय तान् गच्छति। यथा च कपोतः शिशूनां जल्पितं सोत्कण्ठं शृणोति, तथैव परमेश्वरः स्तोतॄणां स्तुतिवचनं प्रेम्णा शृणोति ॥९॥