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देवता: अग्निः ऋषि: अग्निः प्रजापतिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣣ग्नि꣡रिन्द्रा꣢꣯य पवते दि꣣वि꣢ शु꣣क्रो꣡ वि रा꣢꣯जति । म꣡हि꣢षीव꣣ वि꣡ जा꣢यते ॥१८२५

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स्वर-रहित-मन्त्र

अग्निरिन्द्राय पवते दिवि शुक्रो वि राजति । महिषीव वि जायते ॥१८२५

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣ग्निः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । प꣣वते । दिवि꣢ । शु꣣क्रः꣢ । वि । रा꣣जति । म꣡हि꣢꣯षी । इ꣣व । वि꣢ । जा꣣यते ॥१८२५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1825 | (कौथोम) 9 » 2 » 4 » 1 | (रानायाणीय) 20 » 6 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

परमेश्वर का महत्त्व वर्णित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अग्निः) संसार का नायक सर्वान्तर्यामी परमेश्वर (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए अर्थात् जीव का हित करने के लिए (पवते) उसे प्राप्त होता है। (शुक्रः) पवित्र और तेजस्वी वह (दिवि) चमकीले द्युलोक में, सूर्य, तारामण्डल आदि में (वि राजति) विशेषरूप से चमक रहा है। वह (महिषी इव) पूज्या माता के समान (वि जायते) प्रसिद्ध होता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर हमारा पिता और माता भी है। पिता होता हुआ वह मनुष्य-शरीर की और ब्रह्माण्ड की व्यवस्था करता है, माता के रूप में वह सबका लालन-पालन करता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र परमेश्वरस्य महत्त्वं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अग्निः) जगन्नायकः सर्वान्तर्यामी परमेश्वरः (इन्द्राय) जीवात्मने, जीवात्मनो हितं कर्तुमित्यर्थः (पवते) तं प्राप्नोति। (शुक्रः) पवित्रः तेजस्वी असौ (दिवि) द्योतमाने द्युलोके सूर्यतारामण्डलादिषु (वि राजति) विशेषेण दीप्यते। (महिषी इव) पूजनीया माता इव च (वि जायते) प्रसिद्धो भवति ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरोऽस्माकं पिता माता चापि विद्यते। पिता सन्नसौ मानवदेहस्य ब्रह्माण्डस्य च व्यवस्थां करोति, मातृरूपेण च सर्वेषां लालनं पालनं च विदधाति ॥१॥