ऋ꣣ता꣡वा꣢नं महि꣣षं꣢ वि꣣श्व꣡द꣢र्शतम꣣ग्नि꣢ꣳ सु꣣म्ना꣡य꣢ दधिरे पु꣣रो꣡ जनाः꣢꣯ । श्रु꣡त्क꣢र्णꣳ स꣣प्र꣡थ꣢स्तमं त्वा गि꣣रा꣢꣫ दैव्यं꣣ मा꣡नु꣢षा यु꣣गा꣢ ॥१८२१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)ऋतावानं महिषं विश्वदर्शतमग्निꣳ सुम्नाय दधिरे पुरो जनाः । श्रुत्कर्णꣳ सप्रथस्तमं त्वा गिरा दैव्यं मानुषा युगा ॥१८२१॥
ऋ꣣ता꣡वा꣢नम् । म꣣हिष꣢म् । वि꣣श्व꣡द꣢र्शतम् । वि꣣श्व꣢ । द꣣र्शतम् । अग्नि꣢म् । सु꣣म्ना꣡य꣢ । द꣣धिरे । पुरः꣢ । ज꣡नाः꣢꣯ । श्रु꣡त्क꣢꣯र्णम् । श्रुत् । क꣣र्णम् । सप्र꣡थ꣢स्तम् । स꣣ । प्र꣡थ꣢꣯स्तमम् । त्वा꣣ । गिरा꣢ । दै꣡व्य꣢꣯म् । मा꣡नु꣢꣯षा । यु꣣गा꣢ ॥१८२१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी विषय को कहा गया है।
(ऋतावानम्) सत्यवान्, (महिषम्) महान् (विश्वदर्शतम्) सबके द्वारा दर्शनीय (अग्निम्) अग्रनायक आप जगदीश्वर को (सुम्नाय) सुख पाने के लिए (जनाः) स्तोता लोग (पुरः) अपने सम्मुख (दधिरे) धारण करते हैं। (श्रुत्कर्णम्) सुननेवाले कानों से युक्त, (सप्रथस्तमम्) अतिशय कीर्तिमान् (दैव्यम्) विद्वान् उपासकों का हित करनेवाले (त्वा) आपको (मानुषा युगा) पति-पत्नी-रूप मनुष्य-युगल भी (गिरा) स्तुति-वाणी से (सुम्नाय) सुखार्थ (पुरः) अपने सम्मुख (दधिरे) धारण करते हैं ॥६॥
यहाँ निराकार परमेश्वर को भी सुननेवाले कानों से युक्त कहा गया है, इससे उसका श्रोता के समान स्तोताओं के मनोरथों को पूर्ण करने का गुण सूचित होता है। जैसे कानोंवाला कोई मनुष्य कानों से स्तोता के निवेदन को सुन कर उसकी कामना को पूर्ण करता है, वैसे ही परमेश्वर बिना कानों के भी कर देता है, यह अभिप्राय है। कहा भी है, ‘वह बिना आँख के देखता है, बिना कान के सुनता है’ (श्वेता० ३।१९)। सबको चाहिए कि सत्य के प्रेमी, महान्, यशस्वी परमेश्वर को हृदय में धारण करें ॥६॥ इस खण्ड में जगदीश्वर और जीवात्मा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ बीसवें अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
(ऋतावानम्) सत्यवन्तम्, (महिषम्) महान्तम्, (विश्वदर्शतम्) सर्वैर्दर्शनीयम् (अग्निम्) अग्रनायकं जगदीश्वरम् त्वाम् (सुम्नाय) सुखाय (जनाः) स्तोतारो मनुष्याः (पुरः) समक्षम् (दधिरे) धारयन्ति। (श्रुत्कर्णम्) श्रुतौ श्रवणकर्तारौ कर्णौ श्रोत्रे यस्य तादृशम्, (सप्रथस्तमम्) प्रथसा यशसा सहितः सप्रथाः, अतिशयेन सप्रथाः सप्रथस्तमः तादृशम्, (दैव्यम्) देवानां विदुषामुपासकानां हितकरम् (त्वा) त्वाम् (मानुषा युगा) मानुषाणि युगलानि पति-पत्नीरूपाणि (गिरा) स्तुतिवाचा, (सुम्नाय) सुखाय (पुरः) समक्षम् (दधिरे) स्थापयन्ति ॥६ ॥२
अत्र निराकारोऽपि परमेश्वरः श्रुत्कर्ण उक्तस्तेन तस्य श्रोतृवत् स्तोतृकामपूरकत्वं द्योत्यते। यथा कर्णवान् कश्चिज्जनः कर्णाभ्यां स्तोतुर्निवेदनं श्रुत्वा तस्य कामनां पूरयति तथैव परमेश्वरः कर्णरहितोऽपि करोतीत्यभिप्रायः। तथा चोक्तम्—‘पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः’ (श्वेता० ३।१९) इति। स सत्यप्रियो महान् यशस्वी परमेश्वरः सर्वैर्हृदि धारणीयः ॥६॥ अस्मिन् खण्डे जगदीश्वरस्य जीवात्मनश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥