अ꣡सृ꣢ग्रं दे꣣व꣡वी꣢तये वाज꣣य꣢न्तो꣣ र꣡था꣢ इव ॥१८१२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)असृग्रं देववीतये वाजयन्तो रथा इव ॥१८१२॥
अ꣡सृ꣢꣯ग्रम् । दे꣣व꣡वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । वाजय꣡न्तः꣢ । र꣡थाः꣢꣯ । इ꣣व ॥१८१२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर वही विषय कहा गया है।
(मैं) इन ब्रह्मानन्द-रूप सोम-रसों को (देववीतये) दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (असृग्रम्) अपने अन्तरात्मा में प्रवाहित कर रहा हूँ। ये (वाजयन्तः) अन्न प्रदान करते हुए (रथाः इव) रथों के समान (वाजयन्तः) बल प्रदान कर रहे हैं ॥३॥ यहाँ श्लिष्टोपमा अलङ्कार है ॥३॥
जैसे रथ अन्न आदि को लाने में साधन बनते हैं, वैसे ही ब्रह्मानन्द-रस अध्यात्म-बल अदि की प्राप्ति में साधन होते हैं ॥३॥ इस खण्ड में जगदीश्वर और ब्रह्मानन्द-रस के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ बीसवें अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।
अहम् एतान् ब्रह्मानन्दरूपान् सोमरसान् (देववीतये) दिव्यगुणानां प्राप्तये (असृग्रम्) स्वान्तरात्मनि सृजामि, प्रवाहयामि। [असृजम् इति प्राप्ते ‘बहलुं छन्दसि’। अ० ७।१।८ इत्यनेन रुडागमः, ततः कुत्वम्।] एते (वाजयन्तः) अन्नानि प्रयच्छन्तः (रथाः इव) शकटाः इव (वाजयन्तः) बलानि प्रयच्छन्तः, सन्तीति शेषः ॥३॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥३॥
यथा रथा अन्नाद्यानयनाय साधनतां यान्ति तथा ब्रह्मानन्दरसा अध्यात्मबलादीनां प्राप्तये साधनीभवन्ति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जगदीश्वरस्य ब्रह्मानन्दरसस्य च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥