आ꣢ त्वा꣣ ग्रा꣢वा꣣ व꣡द꣢न्नि꣣ह꣢ सो꣣मी꣡ घोषे꣢꣯ण वक्षतु । दि꣣वो꣢ अ꣣मु꣢ष्य꣣ शा꣡स꣢तो꣣ दि꣡वं꣢ य꣣य꣡ दि꣢वावसो ॥१८०९॥
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आ꣢ । त्वा꣣ । ग्रा꣡वा꣢꣯ । व꣡द꣢꣯न् । इ꣣ह꣢ । सो꣣मी꣢ । घो꣡षे꣢꣯ण । व꣣क्षतु । दि꣣वः꣢ । अ꣣मु꣡ष्य꣢ । शा꣡स꣢꣯तः । दि꣡व꣢꣯म् । य꣣य꣢ । दि꣣वावसो । दिवा । वसो ॥१८०९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर परमात्मा को पुकारा जा रहा है।
हे जगदीश्वर ! (इह) इस देहपुरी में (सोमी) श्रद्धारस से भरा हुआ (ग्रावा) पूजक जीवात्मा (वदन्) स्तोत्रों का उच्चारण करता हुआ (घोषेण) स्वागत-शब्द से (त्वा) आपको (आ वक्षतु) अपने पास लाये। हे (दिवावसो) दीप्तिधन परमात्मन् ! (दिवः) तेजोमयी देहपुरी के (शासतः) शासक (अमुष्य) इस जीवात्मा की (दिवम्) तेजोमयी देहपुरी में, आप (यय) आओ ॥३॥
जो हार्दिक स्वागत-वचनों के साथ परमात्मा को पुकारता है, उसकी प्रार्थना को वह अवश्य सुनता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि परमेश्वर आहूयते।
हे जगदीश्वर ! (इह) अस्यां देहपुरि (सोमी) श्रद्धारसमयः (ग्रावा) अर्चको जीवात्मा। [गृणातिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४।] (वदन्) स्तोत्राणि उच्चारयन् (घोषेण) स्वागतशब्देन (त्वा) त्वाम् (आ वक्षतु) आवहतु। [वहतेर्लोटि विकरणव्यत्ययेन सिप्।] हे (दिवावसो) दीप्तिधन परमात्मन् ! (दिवः) द्योतमानायाः देहपुर्याः (शासतः) शासकस्य (अमुष्य) अस्य जीवात्मनः (दिवम्) द्युतिमयीं देहपुरीम्, त्वम् (यय) आगच्छ ॥३॥
यो हार्दिकैः स्वागतवचोभिः परमात्मानमाह्वयति तत्प्रार्थनां सोऽवश्यं शृणोति ॥३॥