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अ꣢त्रा꣣ वि꣢ ने꣣मि꣡रे꣢षा꣣मु꣢रां꣣ न꣡ धू꣢नुते꣣ वृ꣡कः꣢ । दि꣣वो꣢ अ꣣मु꣢ष्य꣣ शा꣡स꣢तो꣣ दि꣡वं꣢ य꣣य꣡ दि꣢वावसो ॥१८०८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अत्रा वि नेमिरेषामुरां न धूनुते वृकः । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥१८०८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡त्र꣢꣯ । वि । ने꣣मिः꣢ । ए꣣षाम् । उ꣡रा꣢꣯म् । न । धू꣡नुते । वृ꣡कः꣢꣯ । दि꣡वः꣢꣯ । अ꣣मु꣡ष्य꣢ । शा꣡स꣢꣯तः । दि꣡व꣢꣯म् । य꣣य꣢ । दि꣣वावसो । दिवा । वसो ॥१८०८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1808 | (कौथोम) 9 » 1 » 16 » 2 | (रानायाणीय) 20 » 4 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में उपासक फिर परमेश्वर को निमन्त्रण दे रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वृकः) सूर्य (उरां न) जैसे अन्धकार से ढकनेवाली रात्रि को (वि धूनुते) विकम्पित करता है, वैसे ही (अत्र) इस देह-पुरी में (एषाम्) इन मरुतों अर्थात् प्राणों का (नेमिः) नेता जीवात्मा (उराम्) आच्छन्न करनेवाली अविद्या-रूपिणी रात्रि को (वि धूनुते) विकम्पित करता है। उस (दिवः) देह-पुरी के (शासतः) शासक (अमुष्य) इस जीवात्मा की (दिवम्) तेजोमयी देह-पुरी में, हे (दिवावसो) दीप्तिधन परमात्मन् ! आप (यय) आओ ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है। दिवो, दिवं, दिवा में वृत्त्यनुप्रास है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

सूर्य के समान तेजस्वी जीवात्मा जहाँ स्थित होता हुआ अज्ञान, पाप आदि की रात्रि का विदारण करता है, वह देह-पुरी निश्चय ही प्रशंसायोग्य और परमात्मा के निवासयोग्य है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरप्युपासकेन परमेश्वरो निमन्त्र्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वृकः) आदित्यः (उरां न) यथा तमसा आच्छादिकां रात्रिम् (वि धूनुते) विकम्पयति, तथा (अत्र) अस्या देहपुर्याम् (एषाम्) एतेषां मरुतां प्राणानाम् (नेमिः) नेता जीवात्मा (उराम्) आच्छादिकाम् अविद्यारात्रिम् (वि धूनुते) विकम्पयति। तस्याः (दिवः) देहपुर्याः (शासतः) शासकस्य (अमुष्य) अस्य जीवात्मनः (दिवम्) द्योतमानां देहपुरीम्, हे (दिवावसो) दीप्तिधन परमात्मन् ! त्वम् (यय) आयाहि। [वृकः, ‘आदित्योऽपि वृक उच्यते, यदावृङ्क्ते।’ निरु० ५।२१। उराम्, ऊर्णोति तमसा आच्छादयति भुवम् आकाशं च या सा उरा रात्रिः। नेमिः, णीञ् प्रापणे, ‘नियो मिः’ उ० ४।४४ इति मिः प्रत्ययः। नयतीति नेमिः नेता] ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः। दिवो, दिवं, दिवा इत्यत्र वृत्त्यनुप्रासः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

सूर्य इव तेजस्वी जीवात्मा यत्र स्थितः सन्नज्ञानपापादिरात्रिं विदृणाति सा देहपुरी नूनं प्रशंसनीया परमात्मनिवासयोग्या च ॥२॥