मा꣡ न꣢ इन्द्र पीय꣣त्न꣢वे꣣ मा꣡ शर्ध꣢꣯ते꣣ प꣡रा꣢ दाः । शि꣡क्षा꣢ शचीवः꣣ श꣡ची꣢भिः ॥१८०६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)मा न इन्द्र पीयत्नवे मा शर्धते परा दाः । शिक्षा शचीवः शचीभिः ॥१८०६॥
मा꣢ । नः꣣ । इन्द्र । पीयत्न꣡वे꣢ । मा । श꣡र्ध꣢꣯ते । प꣡रा꣢꣯ । दाः꣣ । शि꣡क्ष꣢꣯ । श꣣चीवः । श꣡ची꣢꣯भिः ॥१८०६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब जगदीश्वर से प्रार्थना करते हैं।
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! आप (नः) हमें (मा) न तो (पीयत्नवे) हिंसक काम, क्रोध, लोभ आदि के लिए और (मा) न ही (शर्धते) बलवान् किसी मानव शत्रु के लिए (परा दाः) छोड़ो। हे (शचीवः) शक्तिशाली परमात्मन् ! आप (शचीभिः) अपनी शक्तियों से (शिक्ष) हमें शक्तिशाली बनाने की इच्छा करो ॥३॥ यहाँ शकार की अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है। ‘शची’ के दो बार पाठ में लाटानुप्रास अलङ्कार है ॥३॥
जो परमात्मा में श्रद्धावान् होते हैं, उनकी न हिंसक हिंसा कर पाते हैं, न हरानेवाले शत्रु उन्हें हरा पाते हैं। परमात्मा की प्रेरणा से शक्तिमान् मेधावी और कर्मयोगी होते हुए वे सभी विपदाओं का हनन कर देते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जगदीश्वरं प्रार्थयते।
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! त्वम् (नः) अस्मान् (मा) नैव (पीयत्नवे) हिंसकाय कामक्रोधलोभादिकाय। [पीयतिर्हिंसाकर्मा। निरु० ४।२५।] (मा) नापि च (शर्धते) बलवते कस्मैचिन्मानवाय शत्रवे। [शर्ध इति बलनाम। निघं० २।९।] (परा दाः) परित्याक्षीः। हे (शचीवः) शक्तिशालिन्, त्वम् (शचीभिः) स्वकीयाभिः शक्तिभिः (शिक्ष२) अस्मान् शक्तान् कर्तुमिच्छ। [शक्लृ शक्तौ, णिचि सन्नन्तः, लोटि रूपम्] ॥३॥ अत्र शकारस्यानेकश आवृत्तौ वृत्त्यनुप्रासः, ‘शची’ इत्यस्य द्विरुक्तौ लाटानुप्रासः ॥३॥
ये परमात्मनि श्रद्धावन्तो भवन्ति तान् न हिंसका हिंसितुं, न पराजेतारः पराजेतुं शक्नुवन्ति। परमात्म-प्रेरणया शक्तिमन्तो मेधाविनः कर्मयोगिनश्च सन्तस्ते सर्वा अपि विपदो विनिघ्नन्ति ॥३॥