य꣡दि꣢न्द्र꣣ या꣡व꣢त꣣स्त्व꣢मे꣣ता꣡व꣢द꣣ह꣡मीशी꣢य । स्तो꣣ता꣢र꣣मि꣡द्द꣢धिषे रदावसो꣣ न꣡ पा꣢प꣣त्वा꣡य꣢ रꣳसिषम् ॥१७९६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यदिन्द्र यावतस्त्वमेतावदहमीशीय । स्तोतारमिद्दधिषे रदावसो न पापत्वाय रꣳसिषम् ॥१७९६॥
य꣢त् । इ꣣न्द्र । या꣡व꣢꣯तः । त्वम् । ए꣣ता꣡व꣢त् । अ꣣ह꣢म् । ई꣡शी꣢꣯य । स्तो꣣ता꣡र꣢म् । इत् । द꣣धिषे । रदावसो । रद । वसो । न꣢ । पा꣣पत्वा꣡य꣢ । र꣣ꣳसिषम् ॥१७९६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३१० क्रमाङ्क पर हो चुकी है। दान किसे चाहिए, इस विषय में कहते हैं।
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (यावतः) जितने धन के (त्वम्) आप अधीश्वर हो (एतावत्) उतने धन का यदि (अहम्) मैं (ईशीय) अधीश्वर हो जाऊँ, तो (रदावसो) हे धनदाता ! मैं (स्तोतारम् इत्) आपके उपासक का ही, उस धन से (दधिषे) धारण-पोषण करूँ, (पापत्वाय) पाप कर्म के लिए (न रंसिषम्) दान न करूँ ॥१॥
मनुष्य को चाहिए कि सत्पात्र को ही धन आदि का दान करे, पाप की वृद्धि के लिए कभी दान न दे ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३१० क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। दानं कस्मै देयमित्याह।
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (यावतः) यावत्परिमाणस्य धनस्य (त्वम्) त्वम् (ईशिषे) अधीश्वरोऽसि (एतावद्) एतावतः धनस्य यदि (अहम् ईशीय) अधीश्वरो भवेयम्, तर्हि हे (रदावसो) धनदातः ! अहम् (स्तोतारम् इत्) तवोपासकमेव, तेन धनेन (दधिषे) धारयेयम्, (पापत्वाय) पापकर्मणे (न रंसिषम्) नैव दद्याम् ॥१॥२
मनुष्यः सत्पात्रायैव धनादिकं प्रयच्छेत्, पापवृद्धये कदापि न दद्यात् ॥१॥