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प्र꣡ वो꣢ म꣣हे꣡ म꣢हे꣣वृ꣡धे꣢ भरध्वं꣣ प्र꣡चे꣢तसे꣣ प्र꣡ सु꣢म꣣तिं꣡ कृ꣢णुध्वम् । वि꣡शः꣢ पू꣣र्वीः꣡ प्र च꣢꣯र चर्षणि꣣प्राः꣢ ॥१७९३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र वो महे महेवृधे भरध्वं प्रचेतसे प्र सुमतिं कृणुध्वम् । विशः पूर्वीः प्र चर चर्षणिप्राः ॥१७९३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣢ । वः꣣ । महे꣢ । म꣣हेवृ꣡धे꣢ । म꣣हे । वृ꣡धे꣢꣯ । भ꣣रध्वम् । प्र꣡चे꣢꣯तसे । प्र । चे꣣तसे । प्र꣢ । सु꣣मति꣢म् । सु꣣ । मति꣢म् । कृ꣣णुध्वम् । वि꣡शः꣢꣯ । पू꣣र्वीः꣢ । प्र । च꣣र । चर्षणिप्राः꣣ । च꣣र्षणि । प्राः꣢ ॥१७९३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1793 | (कौथोम) 9 » 1 » 11 » 1 | (रानायाणीय) 20 » 3 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३८२ क्रमाङ्क पर परमात्मा की स्तुति के विषय में की जा चुकी है। यहाँ एक साथ आचार्य और परमात्मा दोनों का विषय कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे विद्यार्थियो वा प्रजाओ ! तुम (महेवृधे) महत्त्व के लिए बढ़ानेवाले, (महे) महान् इन्द्र अर्थात् आचार्य वा परमात्मा के लिए (प्र भरध्वम्) उत्तम उपहार लाओ। (प्रचेतसे) प्रकृष्ट चित्त वा प्रकृष्ट ज्ञानवाले उसके लिए (सुमतिम्) उत्तम स्तुति (प्र कृणुध्वम्) भली-भाँति करो। हे आचार्य वा परमात्मन्! (चर्षणिप्राः) मनुष्यों को विद्या,धन, धान्य और सद्गुणों से पूर्ण करनेवाले आप (विशः) विद्यार्थियों वा प्रजाओं को (पूर्वीः) श्रेष्ठ (प्रचर) करो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे जगदीश्वर मनुष्यों को सुखी करता है, वैसे ही आचार्य का भी यह कर्तव्य है कि वह छात्रों को विद्या आदि से पूर्ण करके सुखी करे और उनमें योगाभ्यास आदि की अभिरुचि उत्पन्न करके उन्हें अध्यात्म-मार्ग का पथिक बनाये ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३२८ क्रमाङ्के परमात्मस्तुतिविषये व्याख्याता। अत्र युगपदाचार्यपरमात्मनोर्विषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे विद्यार्थिनः प्रजाः वा ! यूयम् (महेवृधे) महत्त्वाय वर्धयति यस्तस्मै, (महे) महते इन्द्राय आचार्याय परमात्मने वा (प्र भरध्वम्) उत्तमम् उपहारम् आनयत। (प्रचेतसे) प्रकृष्टचित्ताय प्रकृष्टज्ञानाय वा तस्मै (सुमतिम्) शोभनां स्तुतिम् (प्र कृणुध्वम्) प्रकुरुत। हे इन्द्र आचार्य परमात्मन् वा ! (चर्षणिप्राः) चर्षणयो मनुष्याः तान् विद्यया धनधान्यादिभिः सद्गुणैर्वा प्राति पूरयतीति तादृशः त्वम् (विशः) विद्यार्थिनः प्रजाः वा (पूर्वीः) श्रेष्ठाः (प्रचर) प्रकुरु ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

यथा जगदीश्वरो जनान् सुखयति तथाचार्यस्यापीदं कर्तव्यं यत् स छात्रजनान् विद्यादिभिः प्रपूर्य सुखयेत्, तेषु योगाभ्यासाद्यभिरुचिं च जनयित्वा तानध्यात्मपथिकानपि विदध्यात् ॥१॥