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देवता: इन्द्रः ऋषि: सुकक्ष आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

उ꣡प꣢ नो꣣ ह꣡रि꣢भिः सु꣣तं꣢ या꣣हि꣡ म꣢दानां पते । उ꣡प꣢ नो꣣ ह꣡रि꣢भिः सु꣣त꣢म् ॥१७९०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उप नो हरिभिः सुतं याहि मदानां पते । उप नो हरिभिः सुतम् ॥१७९०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । ह꣡रि꣢꣯भिः । सु꣣त꣢म् । या꣣हि꣢ । म꣣दानाम् । पते । उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । ह꣡रि꣢꣯भिः । सु꣣त꣢म् ॥१७९०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1790 | (कौथोम) 9 » 1 » 10 » 1 | (रानायाणीय) 20 » 3 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १५० क्रमाङ्क पर परमात्मा और आचार्य के विषय में की जा चुकी है। यहाँ जीवात्मा को उद्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (मदानां पते) आनन्ददायक ज्ञानों और कर्मों के स्वामी जीवात्मन् ! तू (नः) हमारी (हरिभिः) ज्ञानेन्द्रियों से (सुतम्) उत्पन्न किये ज्ञान को (उप याहि) प्राप्त कर, (नः) हमारी (हरिभिः) कर्मेन्द्रियों से (सुतम्) किये गये कर्म को (उप याहि) प्राप्त कर ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनसहित ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय रूप साधनों से निष्पन्न किये गये ज्ञान और कर्म का सङ्ग्रह करके मनुष्य का जीवात्मा अध्यात्ममार्ग में पग रख कर उन्नति प्राप्त करे ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५० क्रमाङ्के परमात्मविषयमाचार्यविषयं चोपजीव्य व्याख्याता। अत्र जीवात्मा प्रोद्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (मदानां पते) आनन्ददायिनां ज्ञानानां कर्मणां च स्वामिन् जीवात्मन् ! त्वम् (नः) अस्माकम् (हरिभिः) ज्ञानेन्द्रियैः (सुतम्) उत्पादितं ज्ञानम् (उप याहि) उप प्राप्नुहि, (नः) अस्माकम् (हरिभिः) कर्मेन्द्रियैः (सुतम्) निष्पादितं कर्म (उप याहि) उपप्राप्नुहि ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनःसहितैर्ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपैः साधनैर्निष्पादिते ज्ञानकर्मणी संगृह्य मनुष्यस्य जीवात्माऽध्यात्ममार्गे पदं निधायोत्कर्षं प्राप्नुयात् ॥१॥